ईश्वर बोपगतं वाखयान' मुख्यतया क्रियतेऽतोयं प्रधानविषयोस्तीत्यवधाय॑म् ।। धारण करनेवाले प्राण, ३ श्रद्धा वा सत्य विषयके किं च नैव प्रधानस्यायेऽप्रधानस्य राहणं भवितुमर्हति । प्रधानाप्रधानयोः प्रधान विश्वास, ४ आकाश, ५ वायु, अग्नि, ७ जल,८ पृथिवी, कार्यसम्प्रत्यय इति द्याकरणमहाभाष्यवचनप्रामाण्यात्। एवमेव सर्वेषां ८. वाह्येन्द्रिय, १० मन अर्थात् जान, ११ अब, १२ वीर्य वैदानामीश्चरे मुख्यर्थ मुखातात् पर्वमस्ति । तत्प्राप्तिप्रयोजनाएव सर्व- अर्थात् बल एवं पराक्रम, १३ तप अर्थात् धर्मानुष्ठान- उपदेशाः सन्ति । अतस्तदुपदेशपुरःसरेणैव वयाणां कर्मोपासनाज्ञान- काणानां पारमाथि कावहारिकफलसिइये यथायोग्योपकाराय चानुष्ठान रूप सदाचार, १४ मन्त्र वा वेदविद्या, १५ कर्म वा -सब मनुष्यैर्यथावत्कर्तामिति ।" (ऋग्वे दादि भाष्यभूमिका) चेष्टा और १६ नाम अर्थात दृष्ट वा एवं अदृष्ट पदार्थको पुनः इस विषयमें ऋग्वेदका प्रमाण है-विष्णु | संज्ञाको षोडश कला कहते हैं। ईश्वर व्याप्तिमें रहनेसे अर्थात् व्यापक परमेश्वरका जो अत्यन्त आनन्दस्वरूप ही कलाका षोड़शी माम इन्होंने पाया है। इन षोड़श प्राप्तिके योग्य होता और मुक्ति कहाता है, वह कलाका प्रतिपादन प्रश्नोपनिषतके षष्ठ प्रश्नमें लिखा विहानको सर्वदा वा सकल काल देखाता है। (अर्थात् है। इस स्थानमें वेद शब्दका मुख्याध परमेश्वरके स्वरूप योगी पुरुष सदा उस परमात्माके आनन्दस्वरूपको का हो प्रतिपादन करना है। परमेश्वरसे पृथक रूप ज्ञाननेत्रसे देखते या केवल हृदयमें रखते हैं) वही जगतादि वेद शब्दका गोणा) है। इसीसे मुख्य और समस्त पदार्थ में व्याप्त है। उसमें देश, काल और गौणार्थ में मुख्य हो ग्रहणीय है। पुनः लिखा है,- 'वस्तुका भेद नहीं पड़ता अर्थात् ऐसा नहीं-वह अमुक उस अक्षर वा अविनश्वर परमात्माका नाम ॐ स्थानमें रहता है, इस स्थानमें नहीं ; अमुक समय था, है। जो सर्वत्र व्याप्त और सर्व श्रेष्ठ है, वही ब्रह्म इस समय नहीं अथवा अमुक वस्तु में है, इस वस्तुमें है। इससे हमने यह समझा है कि वेदका नहीं। सर्व पदार्थमें विराजनेसे वह ब्रह्म सर्व समय मुख्य तात्पर्य परब्रह्मका प्रतिपादन और उससे सर्वत्र परिपूर्ण रूपसे अधिष्ठित रहता है। सूर्य के | जीवको किसी प्रकार मिला देना है। परमेश्वरका प्रकाशसे प्रावरणरहित आकाश और नेत्र भर जानेको उपदेशरूप वेद तीन प्रकारके अवयवसे युक्त है-कम, भांति, परब्रह्मका अवस्थान स्वयं प्रकाश और व्याप्तवान् उपासना और ज्ञान, इन तीनो काण्डसे इहकाल है। इस परब्रह्म परमपदको प्राप्तिसे श्रेष्ठ दूसरी तथा परकालका व्यवहारिक फल पाने और यथावत प्राप्ति ब्रह्माण्ड में नहीं, इसोसे चारो वेदमें वह पद उपकारार्थ सकल मनुष्यके उपरोक्त तीन प्रकार प्राप्ति विशेष प्रतिपादित है। इस विषयमें व्यासदेव- | अनुष्ठान विषयमें पुरुषकार लानेको हो देहधारणका लिखित वेदान्तशास्त्रका प्रमाण भी मिलता है, फल समझना चाहिये। आर्य समाज और दयानन्द सरस्वती 'समस्त वेदवाक्यमें उसी ब्रह्मका ही विशेष प्रति- | शब्दमें विस्त त विवरण देखिये। पादन विद्यमान है।' यही ब्रह्म वेदके किसी स्थानमें महात्मा केशवसेनके मतसे वेदका ईखर निश्चेष्ट साचात और किसी स्थानमें परम्पराभावसे प्रतिपादित और पुराणका ईश्वर कर्मशील है। निश्चेष्ट और कर्म- है। इसीसे परब्रह्म वेदका परम अर्थ वा परम | शील दोनो प्रकारका इसतरह सिद्ध होता है कि- प्रतिपादक पदार्थ बना है। यजुर्वेदमें भी इसका | ईश्वर मनुष्यकी भांति इधर-उधर नहीं घूमता और न ऐसा ही प्रमाण है-उस परब्रह्मकी अपेक्षा बारबार कोई काम ही करता है। वह हमारे और श्रेष्ठ वा उत्तष्ट द्वितीय पदार्थ अन्य कोई नहीं. तुम्हारे मुंहमें प्रकाश्य रूपसे अब न डाल समस्त वह सर्वत्र समस्त विश्वमें व्याप्त है, समस्त जगत्का ब्रह्माण्डको शक्तिके भीतर उसका प्रबन्ध बांधता है। ब्रह्म पालनकर्ता तथा अध्यक्ष है और अग्नि सूर्य एवं निष्क्रिय रहते भी गूढ़ नियमसे हमारा समुदाय प्रभाव विद्यत् तीन ज्योतिर्मयको अन्यान्य सृष्ट पदार्थसे मिल मोचन करता है। हम देश, नगर एवं ग्राममें सर्वत्र नेके कारण षोड़शी अर्थात् षोडशकला कहाता है। ब्रह्मको पूजें और उसोको अपने भवनको लक्ष्मी समझे। यथा-१ ईक्षण वा यथार्थ विचार, २ समस्त विश्वको विश्व में निगूढ़ कल्याणके कौशलसे कार्यका स्रोत नियत
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