ईश्वर-ईश्वरचन्द्र ११५ बहा करता है। ईश्वर उसी कल्याणके कौशलसे | को बनाया है। वह सर्वदर्शी, असीम, अमर इत्यादि भक्तको सुखी बनाता और सच्चेको जिताता है। विशेषणसे संयुक्त है। इस लाम और मुसलमान् देखो। (सेवकका निवेदन १म और रय खड, २०६ पृष्ठ ), वर्तमान समयमें खुष्टानोंका धर्मसम्पदाय नाना केशवका कहना है-जो दुर्गा है, वही कालो श्रेणियों में विभक्त हो गया है। कोई ईश्वरको सवस्रष्टा है। पूजा करनेवालेने दोनोमें एकही शक्ति समझता और कोई ईश्वरसे नहीं-खभावसे ही जगत् पायो। केवल मनके भावने देवीको दो वर्णमें की उत्पत्ति मानता है। कोई संयोग-वियोग द्वारा प्रतिफलित किया था। जिस मूति को देख पहले पृथिवीको उत्पत्ति ठहराता है और ईश्वर के अस्तित्वपर भक्तिभाव बढ़ा और मन मुग्ध पड़ा, उसोका परि- विश्वास नहीं लाता। पात्रात्य दर्शन शब्दमें विस्त त विवरण देखो। वर्तन पा ऐसा भय उपस्थित हुआ! भक्तिपूर्वक ईश्वरकवि-एक प्रसिद्ध हिन्दुस्थानी कवि। ये पौरंग- एकबार हृदयके मध्य पहुंचने और वहां हो जे.बकी राजसभामें रहते और सरस कविता करते थे। ढंढ़नेसे यह मूर्ति देखनेको मिलती है। भीतर ईश्वरकृष्ण-एक प्रसिद्ध ग्रन्थकार। इनको बनायो आलोक न आये और अन्धकार समा जायेगा। अनन्त सांख्यकारिका हमारे दर्शनशास्त्र में चिरप्रसिद्ध है। आकाश काला है। उसी अनन्त आकाशमें यह ५५७ से ५८८ ई के मध्य चनती (परमार्थ )-ने चीना शक्ति विलीन रहती है। इस स्थानपर अन्धकारमें भाषामें उक्त ग्रन्थका अनुवाद किया था। ईश्वर- अन्धकार सना और एक निराकारमें सकल एकाकार कृष्णको कोई-कोई कालिदास समझते हैं। पाश्चात्य बना है। आकाश और अन्धकारमें कुछ भी प्रभेद पड़ | पण्डितोंके मतसे ये ई० के ६ठे शताब्दमें विद्यमान थे । नहीं सकता। उसी गहरे काले आकाशमें अन्धकारके किन्तु उनका यह मत माना जा नहीं सकता। क्योंकि भीतर ब्रह्मशक्ति ब्रह्मज्ञान है। बाहर उसीकी काली जो ग्रन्थ ६४ शताब्दमें चीन देशमें जा कर अनु- मूर्ति बनी है। बाहर देवी और भीतर ब्रह्मज्ञानरूप | वादित हुषा, वह उक्त समयसे अन्ततः बहु वर्ष ब्रह्मशक्ति है।" (सेवकका निवेदन ४५ खण्ड १४७.८ पृष्ठ) पर्व अवश्य बना था। बनते ही सांख्यकारिका कुछ परमहंस रामकृष्णने कहा है,-सच्चिदानन्द हरि चीनदेश पहुंच न गयी होगी। नाना स्थानों में विख्यात बहुरूपी है। वह एक है, वह अनन्त है, वह विश्व होनेपर चीन देशके लोग भारतवर्ष श्रा उसे ले गये रूपी भगवान् है। जो उसको नहीं देखता, वह होंगे। अनुवाद करने में भी कम समय लगा न उसका मर्म नहीं समझता और साकार निराकार होगा। अतएव ६ठे शताब्दसे बहुपूर्व ईश्वरकृष्णका पर तर्क भी करता है। किन्तु प्रकृत भक्त उसे साकार विद्यमान रहना समझ पड़ता है। इस देशके कोई और निराकार दोनो रूपमें पूजता है। ब्रह्मका | पण्डित भगवान श्रीकृष्णको हो सांख्यकारिकाका अनन्त नाम और अनन्त भाव है। जिसे जो भाव रचयिता मानते हैं। कृष्ण पायन प्रभृति अपर और जो नाम अच्छा लगता है, उसे उसी नाम और कृष्णोंसे भिन्न रखनेके लिये ईश्वरकृष्ण नाम पड़ा है। उसी भावसे पुकारने पर ईखर मिलता है। अहम्भाव नारायणने-'सांख्यचन्द्रिका' नानी सांख्यकारिकाको छुटनेसे ईश्वर देख पड़ता है। कलिकालमें ईखरका टीका एवं विज्ञानभिक्षुने 'आर्यभाष्य' नामक सांख्य- नाम ही एकमात्र साधन है। रामकृष्ण और विवेकानन्द देखो। कारिकाका भाष्य बनाया है। . खुष्टानोंको बाइबिलके मतसे ईश्वर सृष्टिकर्ता ईश्वरगीता (सं० स्त्रो०) कूर्मपुराणका अंशविशेष । है। सृष्टि के पूर्व एकमात्र वही विद्यमान था। उसौसे | | ईश्वरचन्द्र-वङ्गदेशान्तर्गत कृष्णनगरके एक राजा। यह चराचर जगत् निकला है। ईसाई देखो। ये शिवचन्द्रके पुत्र थे। १७१८ ई में शिवचन्द्रके न्के मतसे ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्व श्रेष्ठ मरनेपर इन्हें राजपद मिला था। ईश्वरचन्द्र रूपवान, और सकलका स्रष्टा है। उसने नूतन रक्तसे मनुष्य- ' बलवान् और सङ्गीतप्रिय थे। १८.२ ई में ५५
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