पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२२३

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उत्पाद्य-उत्प्लव २२२ उतपाद्य ( त्रि.) १ जननीय, पैदा किये जाने के । यह रोग उपजनेसे अपलतास, शजने और कटक- काबिल। (अव्य०) २ उत्पन्न या पैदा करके। लेजेको छाल, गोहरेको वसा, वन्य शूकर, गो एवं ३ उत्तेजना देकर, भड़काके । हरिणका पित्त तथा घत सकल द्रव्य का प्रलेप अथवा उत्पाद्यमान (सं.वि.) उत्पन्न किया जानेवाला, तेल पका लगाना चाहिये। (सुथु त सूत्र० १८०) जो निकाला जा रहा हो। उत्पुलक (सं० त्रि.) आनन्दित, खुश । उत्पार (सं० पु.) शुद्ध घृत, साफ घो। उत्प्रभ (सं० त्रि.) १ प्रभावित, चमकीला। उतपारण (व. लो०) उत्तरण, कूदकर पार होनेका (पु.)३ अग्नि , पाग। काम। (पर्व ॥३।२९) उत्प्रसव (स• पु०) गर्भस्राव, इसकात हमल । उत्पाली (स स्त्री० ) उत्पल-घञ्-डीए । प्रारोग्य, उत्प्राण (स पु०) श्वास, सांस । तनदुरुस्ती। उत्प्रास (सं० पु०) उत्-प्र-अस दीप्तादौ घ । उत्पाव (सं० पु०) शुद्धिकारक घृत, साफ करने १ उपहास, हंसी। २ शधिक्य, ज्यादतो। ३ दूर वाला घो। उतक्षेपण, फेंक फांक। ४ उत्कट हास्य, कहकहा, उपिचर (सं० वि०) पिचरसे छूटा हुआ, जो खिलखिलाहट । पिंजड़ेमें बन्द न हो। उत्प्रासन (सं० लो०) उत्प्रास देखो। उपिजल (सं• त्रि.) १ अतिशय व्याकुल, निहा- - ( नि अतिशय व्याकल. निहा- | उत्प्रेक्षण (सं० की.) उत्-प्र-ईश भावे लुट । यत बेचैन। २ पिङ्गलवर्ण, जद, पोला । १ उद्भावन, ख़याल । २ सम्भावता, होनहार। ३ जव- उत्पित्सु (सं० वि०) उत्पतन, उड्डयन वा उग- दृष्टि, गहरी नजर। मनका अभिलाषी, जो उठना, उड़ना या आगे बढ़ना | उत्प्रेक्षा (सं० स्त्री०) उत्-प्र-ईक्ष-अ-टाप। १ अन- चाहता हो। वधान, उपेक्षा, बेपरवाई। २ वितर्क उलटा खयाल । उतपिष्ट (सं० त्रि.) उत्-पिष-क्त। १ उन्मथित, ३ काव्यालङ्कार विशेष। प्रकृत वस्तुमें अन्यप्रकार रगड़ा या पीसा हुआ। (लो०)२ सुश्रुतोक्त सन्धि सम्भावना उत्प्रेक्षा कहाती है। मुक्तरूप अस्थिभङ्ग विशेष, जोड़की हड्डियोंके चरमरा “सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत्।” (काव्यप्रकाश ) जानेका एक आजार। सन्धिके उपिष्ट होनेसे उभय यह अलवार प्रधानत: दो प्रकारका होता है- पाव पर शोफ और दुःख उठता है। विशेषतः रात्रिको वाच्य और प्रतीयमान। जिसमें 'जैसे' 'सदृश' और नानाप्रकार वेदना उपजती है। ( मुश्रुत निदान १५ १०) 'तरह प्रभृति शब्द रहते हैं,वह वाच्य और जिसमें उक्त उत्पिष्टसन्धि, २ उत्पिष्ट देखो। शब्द न पड़ भावसे अर्थ लगता है, वह प्रतीयमान है। उत्पीड़ (सं० पु.) १ सुरामण्ड, शराबका जोश । जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य के विचारसे उक्त दोनो २ फेन, फेना। ३ वाधा, तकलीफ। ४ सङ्घर्षण, | प्रकारके चार चार भेद होते हैं। फिर भाव एवं रगड़। ५ उन्मथन, मथाई। . अभावके अभिमान और गुण तथा क्रियाके खरूपसे ___“आकान्ती नयनसलिलोत्पीडरुवावकाशाम्।” (मेघदूत ) उतपेक्षा बत्तीस प्रकारको होती है। . उत्पीड़न (स'• लो०). उत्-पौड़-लुपट् । १ उत्ते- उत्प्रेक्षित (सं० त्रि.) सदृशोकत, मिलाया हुआ। जन, भड़काव। २ ठंसाठं सो। ३ प्रवर्तन, तरगीब। उत्प्रेक्षोपमा (सं० स्त्री०) काव्यालङ्कार विशेष। ४ श्राधिक्य, ज्यादती, बढ़ती। ५ उपद्रव, तकलीफ- उत्प्रेक्षा देखो। दिहो। उत्प्रेक्ष्य (सं० वि०) सदृश बनाया जानेवाला, जो, उत्पुटक (सं० पु०) उत्-पुट-कन्। कर्णपालीगत किसी चीजके बराबर ठहराया जाता हो। रोग विशेष, कानको लोलकमें होनेवाली एक बीमारी। उतप्लव (स.पु०) वलान, उछाल, कूदफांद।