पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२७४

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उद्भिविद्या-उद्धान्तक २७३ वर्तमान वैज्ञानिकोंकी तरह अवगत था। प्रायु- उद्धृतरूप (स. क्लो०) दृश्य आकार, देख पड़ने- वेदोक्त द्रव्यगुण देखनेसे सविशेष जान सकते-किसी वाली सूरत। किसी विषयमें पाश्चात्य तत्त्वविदोंकी अपेक्षा वे सम "उन तरूपं नयनस्य गोचरं ट्रव्यापि तहन्ति पृथक्त्व संख्या । धिक समझते थे। वभागस्योगपरापरत्व' से हट्रवत्व परिमाययुक्तम् ॥ "तव सिता जलेभूमिरन्तरुपविषाचिता। क्रियाजातीयोगहत्ती समवायच तादृशम् । वायुना व्यू मामा तु वीजत्व' प्रतिपाद्यते ॥ एकाति चक्षुसम्बन्धादालोको तरूपयोः ॥” (भाषापरिच्छेद) तथा व्यक्तानि वोजानि स'सिक्तान्यम्भसा पुनः । उद्भति (सं. स्त्री०) उत्-भू-तिन्। १ उत्पत्ति, उच्छूनत्व' मृदुत्वश्च मूलभाव प्रयाति च। पैदायश । २ उत्तम विभूति, अच्छी हैसियत । तन्म लादारोत्पत्तिरङ्ग रात् पर्ण सम्भवः । ३ उवति, तरको, उचाई। पर्यात्मक तत: काउ' कारणाच प्रसव' पुनः ॥” (राघवभट्ट) उडेट (सं० प्र०) उत-भिद-घञ । १ भेदके साथ जलसिता मूमि अभ्यन्तरस्थ उष्मा द्वारा पच्यमान प्रकाश, फोड़कर निकास। होती है। फिर परिपाकजनित विकारविशेष जब "पुष्पोछेद सह किसलयभूषणानां विशेषात्।" (मेघदूत) वायुद्वारा पकड़ा या रगड़ा, तब वह उडिदके २ उदय, उठान। ३ स्फति, शिगुफ्तगी। ४ प्रावि- जन्मका वीज अर्थात् उपादन-कारण समझा जाता है। | कार, ईजाद। ५ रोमाञ्च, रोंगटोका खडा होना। इसी अव्यक्त वीजसे प्ररोह निकलता है। कभी कभी मेलन, मिलाप । प्ररोहसे व्यक्त वीज फट पड़ता है। व्यक्त वीज सकल “गङ्गीझेद समासाद्य विराबोपोषितो नरः।" (भारत-वन ८५०) जलसे आई होनेपर प्रथम फूलने और मृदु तथा ७ काव्यालङ्कार विशेष । इसमें चातुर्य के साथ गुप्त किये कोमल होने लगता है। क्रमसे वही भविष्यद अङ्गारका हुये विषयका किसी कारण वश प्रकाशित होना मूलखरूप बन जाता है। मूलसे अङ्ख र, अङ्गरसे देखाते हैं। ८ अङ्गुर, किल्ला। पत्रका अवयव, पत्रके अवयवसे आत्मा वा देहभाग उद्भेदन (स क्लो०) उत्-भिद् भाव ल्य ट। १ प्रका- ( काण्ड ) और देहभागसे प्रसव (पुष्यफलादि) उत्- शन, खोलाई। २ निझर, झरना। पन्न होता है। उभ्यस (वे० त्रि०) जो ऊंचा कर रहा हो। सिवा इसके प्राचीन शास्त्रमें त्वक्सार, अन्तःसार, "चतुर्द'ष्ट्रां व्यावहतः कुम्भमुष्कां प्रसङ मुखान् । स्वभ्यसा ये चौमसाः। (अथर्व ११९१७) नि:सार प्रभृति शब्दोंका उल्लेख रहनसे सहज हो उभ्रम (सं० पु०) उत्-भ्रम करणे घञ, नोदात्तो- मानना पड़ता-ऋषिगणको उद्भिदका तत्त्व अवश्य पदेशति न वृद्धिः। १ उद्देग, उभार। २ बुद्धिलोप, अवगत था। क्वषिपराशर, ट्रयगुण प्रभृति प्राचीन बेहोशौ। ३ व्याकुलता, बेचैनी । ४ अर्वनमण. ग्रन्थमें उद्भिद विद्याका सूक्ष्मतत्त्व विद्यमान है। चक्कर। ५ शिवगण विशेष । ' निम्नलिखित वचनसे भी उद्भिविद्याका प्राचीन उभ्रमण (सं० क्लो०) 'इतस्ततः गमन, चलफिर। तत्त्व प्रदर्शित होता है- उझान्त (सं० त्रि०) उत्-चम-त । १ व्याकुल, "मूलत्वक्सारनिर्यासनालखरसपल्लवाः । चौरा: चौर' फल' पुष्प भस्म तेलानि कण्टकाः ॥ वेचैन । २ वान्तियुक्त, भूलाभटका। ३ हतबुद्धि, पत्राणि गुयाः कन्दाश्च प्ररोहयोनिदो गण: ॥" (चरक) भौचक्का । ४ पाणि त, चक्कर लगाता हुआ । ५ व्यस्त, उभिन्न (सं० त्रि०) उत्-भिट्-त । १ उत्पन्न, पैदा। लगा हुआ। ६ उच्छङ्कल, बेकायदा । (पु.) २ दलित, तोड़ा हुअा। ३उत्थित, निकला हुआ। ७ खड़गादिका सञ्चालन, पटेबाजी, तलवारको फट- उडू (सं० त्रि०) स्थायी, पायदार। कार। इसमें हस्त ऊपरको उठा खड़ग घुमाते और उद्भूत ( सं० वि० ) १ उत्पन्न, पैदा। २ उच्च, / शत्र के प्राघातको बचाते हैं। ऊंचा। ३ दृश्य, देख पड़नेवाला। . ... . . . | उद्भ्रान्तक (स. क्लो०) वायुमें उत्थान, हवा में उठान । ___Vol III. 69 . ..