पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२९७

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२६६ उपकुञ्चक-उपक्रम उपकुच्चक, उपकुछ देखो। । उपकूप (सं० लो०) १ कूपसमीप, कुवेंको बगल। उपकुञ्चि (सं० स्त्री०) उप-कुञ्च-कि। कलोजी- (पु.)२ कूपसमीपस्थ जलाशय, कुयें के पासका जीरक, कुलौंजन । २ हज्जौरक, बड़ा जीरा। तालाब। (अव्य० ) ३ कूपके निकट, कुवेंके पास। ३ सूक्ष्म ला, छोटी इलायची। ४ कृष्णजीरक, काला उपकूपजलाशय (सं० पु०) कूपके समीपको द्रोणी, जीरा। ५ स्वल्प जोरक, छोटा जीरा। यह कट, कुवेंके पासका हौज। इसमें पशु पानी पीते हैं। उष्ण. दीपम, वृष्य, अजीण-शमन, एवं गर्भाशय-विशो- उपकूल (सली .) कुलस्य समीपम् । १समुद्र. धक होता है और आध्यान, वातगुल्म, रक्तपित्त, कमि, और नदी आदिके भूमिका प्रान्तभाग, समुन्दर और कफ, पित्त, आमदोष, वात तथा शूलको खोता है। दरया वगैरहको जमीनका अगला हिस्सा। (अव्य०) (वैद्यकनिघण्ट) २ तटपर, किनारे । उपकुञ्चिका, उपकुचि देखो। उपकृत (सं. त्रि.) उप-क-त। १ उपकारप्राप्त, उपकुच्ची, उपकुञ्चि देखी। एहसान उठाये हुआ। २ उपकारको मानने वाला, उपकुम्भ (सं० वि०) १ समीप, निकट, नजदीकी। एहसानमन्द। (लो०) भावे त। २ उपकार, २ एकाकी, अकेला। ( अव्य० ) ३ कुम्भके समीप, एहसान। घड़े के पास। उपक्वति (सं० स्त्री०) उप क्व-क्तिन् । उपकार, उपकुम्भा (सं० स्त्री०) दन्तोवृक्ष, दांतोका पेड़। एहसान्, भला। उपकुर्वाण (सं० पु.) उपकुरुते, उप-क-शानच् ।। उपक्वतिन् (सं० त्रि०) उपकार करनेबाला, जो ब्रह्मचारी! जो हिज ब्रह्मचर्यको समाप्त कर एहस्था- एहसान् करता हो। श्रममें जाता वह उपकुर्वाण कहलाता है। उपक्लष्ण (स. त्रि.) उपगतः कृष्णम् । कृष्णके उपकुल्यका, उपकुल्या देखो। निकट रहनेवाला। (अव्य.)२ कृष्णके समीप। उपकुल्या (सं० स्त्री० ) उप-कुल अनादि निपा- | उपक्लप्त (सं० त्रि०) उठा-क्लप-क्त । १ नियत, तनात्। पिप्पली, पीपल। २ प्रणाली, नहर। ठीक किया हुआ। २ विन्यस्त, तैयार किया हुआ। उपकुश (सं० पु.) १ सुश्रुतीक्त दन्तमूलगत पित्त- ३ उपभोगसमर्थ, जो मज़ा उठा सकता हो। रतज रोग विशेष, मसूड़ेका फोड़ा। दन्तमूल जलने, उपकेश (स. क्लो०) कल्पित केश, बनावटी बाल। और पकनेसे दन्त हिला करते हैं। अल्प रगड़ने परही उपकेशगच्छ-जैनसम्प्रदायको एक शाखा। उनसे रक्त गिरने लगता है। रक्तस्रावके बाद सूजन उपकोलिका (स'. स्त्री०) कृष्णजौरक, कालाजीरा। चढ़ने और मुख में दुर्गन्ध उठनेसे उपकुश रोग समझा | उपकोशा (सं. स्त्री० ) उपवर्षको कन्या और जाता है। इस रोगमें वमन, विरेचन, और शिरो- वररुचिको भार्या। वररुचि देखो। विरेचनका प्रयोग कर काकड़म्बरके पत्र पर शोणित उपकोशल (सं० पु. ) कमलापत्य ऋषिके एक टपकाना चाहिये। फिर लवण और विकट मधुके पुत्र। अपर नाम कामलायन। (छान्दोग्य उप० ४।१०।१) साथ लगाते हैं। पिप्पलो, सरिषा, शुण्ठी और निचुलके उपक्रन्त (स० त्रि०) प्रारम्भ करनेवाला, मुबतदा, फलको जलमें पका अल्प उष्ण रहते कुल्ला करना चाहिये। जो कोई काम हाथमें लेता हो। यह उपकुश रोगपर बहुत हितकारी है। २ अश्वमुख-उपक्रम (सं. पु. ) उप-क्रम-घज, न वृद्धिः। . रोग, घोड़े के मुंहको एक बीमारी। इसमें दन्तके मांससे | १ आरम्भ, शुरू। २ उपाय, तदबीर। ३ हेतुभेद, रुधिर गिरता और दन्तचलन पड़ता है। (जयदत्त) कोई सबब। करण धज । ४ समादि। ५ उपधा। उपकूजित (स. त्रि.) शब्दायमान किया हुआ, गमन, चाल। ७ पलायन, भागाभागी। ८विक्रम, जो गुंजाया गया हो। . . . जोर। चिकित्सा, इलाज। १० उद्यम, रोजगार।