पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३८६

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उरुवक-उर्णनाभ उरुरुक, उरवुक देखो। उरूसी (हिं. स्त्री० ) वृक्षविशेष, एक पेड़। यह उरुव्यचाः (वै पु.) उरु-व्यच-अस्। १राक्षस। जापानमें उत्पन्न होता है। इससे जो गोंद निका- (त्रि.)३ अतिव्यापक, ख ब भरा या फैला हुआ। लते, उसे रंग और वारनिशमें डालते हैं। (कक श५०१) 'व्यचे कुटादित्वमनसि। अनसीति किम् । उरव्यच।' उरे (हिं क्रि० वि०) १ उस पोर, भाग। २ दूर, (काशिका १।२।१) फासले पर। उरुव्यञ्च (वै त्रि०) १ अतिदूर पर्यन्त गमनशील, उरखना, अवरेखना देखो। बहुत दूरतक पहुंचनेवाला। २ विस्तृत स्थानयुक्त, उरेह (हिं. पु.) उल्लेख, चित्रण, नक्काशी। लम्बी चौड़ी जगह रखनेवाला। उरहना (हिं. क्रि.) १ उल्लेखन करना, कुलमसे उरुव्रज़ ( स० त्रि०) विस्तृत राज्ययुक्त, जिसके लम्बी खींचना। २ रचित करना, रंग भरना। चौड़ी सलतनत रहे। उरोग्रह (सं. पु.) १ हृदयरोगविशेष, दिलको उरुशंस (वै० त्रि.) १ उच्चैः स्वरसे प्रशंसा करने एक बीमारी। अति अभिष्वन्दि, गुरु तथा अम्बशुष्क वाला। २ अनेक व्यक्तियों द्वारा प्रशंसित। (सायण) आमिष खानसे अन्वके साथ यवत् एवं प्लीहाका उरुशर्मा (वै. त्रि.) संसारमें प्रत्येक स्थानपर मांस सद्य ही बढ़ जाता है। फिर यह रोग कफ शरण पानेवाला। और मारुतको कुक्षिमें पहुंचाता है। उरोग्रह वाम पक्षा (वै० वि०) उरु-सन्-विट्-डा वेदे षत्वम्। पाखें और दक्षिणांशमें नहीं, बुक के मध्य बढ़ता है: महादाता, चहुदानकारी। (ऋक् ५१४४।६) जिसका शिरातनुत्व बुक्कके आगे रहता, उस रोगको उरुष्या (वे. स्त्री०) रक्षणच्छा, पनाह देनेको खाहिश। हो सद्य उरोग्रह कहता है। इसमें दौर्बल्य बढ.ता, (ऋग्भाष्ये सायण हा४४।७) अग्नि मन्द पड़ता, काश्य लगता, मांसका अभिका- उरुष्थ (व त्रि०) दूर स्थानको गमन करनेवाला, हित चलता और कृष्णवर्णत्व एवं पीतक भी उपजता जो बचानको खाहिश रखता हो। (सायण) है। कोई विजिह्व-सदृश और कोई कच्छपसन्निभ उरुसत्त्व ( स० त्रि०) उदारामा, सखी, उमदा। रहता है। फिर ज्वर, भरुचि, पिपासा और शोथका उरुस्तम्भा (सं० स्त्री०) कदलीवृक्ष, केलेका पेड़। वेग भी बहुत बढ़ जाता है। (निघण्ट) २ हृदय उरुस्खन (स'० त्रि०) अत्युच्च, बहुत ऊंचा। वेदना, सोने का दर्द। उरुहार (सं० पु.) बहु मूल्य माला, बेबहा मेहरा! उरोधात. उरोयह देखो। उरूक (स• पु०) उल्क, उल्लू।। उरोज (स'. पु.) उरस्-जन-ड। स्तन, पयोधर, उरूची (वै० स्त्री०) अतिव्यापिका स्त्री, दूरतक औरतको छाती। स्तन देखो। फैली हुई चीज़। (ऋग्वेद) उरोभूषण (स. क्लो० ) उरो भूष्यते अनेन, भूष-ल्युट । उरूज (१० पु.) १ उन्नति, उठान। २ शिरो- हार, छातीका गहना। विन्दु, सिमतुररास। उरोवृहती (वै. स्त्री.) वैदिक छन्दोविशेष । उरूज़ (अ.पु.) पिङ्गल, काफियाबन्दी, कविता यास्कके मतसे यह हितोय चरणमें जागतात्मक होता है।. बनानेका ढंग। उरोहस्त (स. क्लो०) बाहुयुद्ध विशेष, हाथको " उरूणस (दै० त्रि०) दीर्घनासायुक्त, लम्बी नाक- एक लड़ाई। वाहुयुद्ध देखो। वाला। (ऋक् ११३१४॥ २२) "उरोहस्त' ततश्यक पूर्णकुम्भो प्रपञ्च तौ।" (भारत, सभा २२ १०) उरूल (स० वि०) १ स्थानसे प्रीति रखनेवाला, उर्जित (सं० वि०) त्यक्त, छोड़ा हुआ। जो जगहको पसन्द करता हो। २ वृद्धिका इच्छ क, उर्णनाभ (सं० पु.) कर्णव सूत्रनाभो गर्भ यस्य, जो बढ़ना चाहता हो। ३ खतन्त्र, भाजाद। समासे इखः। ऊर्णनाभ, मकड़ा। कर्णनाभ देखो। Vol III. 97