पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३८८

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उर्वरा-उर्वशी ३८७ उर्वरा (संस्त्री० ) ऋ-अच्-टाप् वा उर्व-रा-क्विप। वेदके मतमें उर्वशीसे वशिष्ठ का जन्म हुआ था। १शस्यशालिभूमि, उपजाऊ ज़मौन्। २भूमिमात्र, वृहद्देवताके मतानुसार यज्ञस्थलमें उर्वशीको देखते कोई जमोन्। ३ तन्तु, जर्णा प्रभृतिका संयुक्त समु- ही वासतीवर पर मिवावरुणका रेत: गिरा, जिससे दाय, रेशे और जन वगैरहको मिली हुई लच्छी। . अगस्त्य और वशिष्ठने जन्म लिया। ४ एक अप्सरा या परौ। ५ कुटिल केश, घरवाले पद्मपुराण में पढ़ते हैं-किसी समय विष्णुने धर्मके बाल। (त्रि.) ६ अधिक, ज्यादा । पुत्र बन गन्धमादन पर्वत पर घोरतर तपस्या को उर्वराजित् (स.नि.) क्षेत्र अधिकार करनेवाला, शे। इन्द्रने घबराकर तपस्या में विघ्न डालने के लिये जो खेत लेता हो। श्रसरोगणके साथ काम और वसन्तको भेजा। उर्वरापति (सं० पु.) वीज वपन किये हुये क्षेत्रोंका: किन्तु अप्सरायें विष्णु का ध्यान तोड़ न सकीं। स्वामी, बोये खेतोंका मालिक। कब कामदेवने अपने जरुसे उबैशीको निकाला। उर्वरासा (वत्रि .) उदेरां भूमि सनोति, सन्-विट जवंशी ही केवल उनका ध्यान तोड़ सको थीं। डा। भूमिविभागकारी (पुत्रादि), जमीन बांटने : इससे इन्द्र उर्वशी पर अत्यन्त सन्तुष्ट हुये और ग्रहण वाले (लड़के वग़ रह)। करनेको चाहने लगे। फिर मित्र और वरुण उर्वरी (स' स्त्री०) शणसूत्र, पटसन। उईशी पर नलचाये। किन्तु उव शौने उन्हें प्रत्या- उर्वयं (वै. त्रि.) उर्वरायां भवः यत्। शस्थ स्थान किया। मित्र और वरुणने इससे असन्तुष्ट शालि भूमि-जात, बोये खेतसे पैदा। हो उर्वशीको अभिशाप दिया था। उसी शापसे उर्वशी ( स. स्त्री०) उरून् महतोऽपि अन ते व्याप्नोति यह मनुष्यभोग्य बन गयो । वशीकरोति, उरु-श-क, स्त्रियां ङोष। स्वनामख्यात हरिवंशका वचन है-उव शो ब्रह्माके शापसे मनुष्य स्व वेश्या, इसी नामसे मशहर बिहश्तको एक परी। जन्मको प्राप्त हुई। उन्होंने महाराज पुरूरवाके नारायणका उरु भेदकर निकलनेसे इस अप्सराका निकट जा पत्नीत्त्व स्वीकार किया और कह दिया था, नाम उर्वशी पड़ा है। 'जितने दिन नग्न देख न पड़ेंगे, जितने दिन प्रकामा "उर्वशी तु हर: सञ्चमूरु भित्वा विनिर्गता।" (व्याडि) पत्नीसे रत न रहेंगे, जितने दिन आप एक सन्धया घत- श्रीमद्भागवतमें लिखा है-नरनारायण बदरिका- मात्र भोजन करेंगे और जितने दिन दो मेष हमारी श्रममें तयोनिरत रहे। इससे इन्द्र समभी कि उन्होंका: शय्याके समीप बंधेगे, उतने दिन भार्या भावसे हमारे पद लेने के लिये नर और नारायण वैसो घोरतर तप- दिन इस घरमें कटेंगे; इससे अन्यथा होने पर शाय स्थामें लगे हैं। फिर उन्होंने तपोविघ्नके लिये कामदेव छट जायेगा और फिर हमारा कोई पता न पायेगा। और अफसरोगणको भेजा। वदरिकाश्रममें पहुंचते राजा वही खीकार कर उ शोके साथ परम सुखसे ही कार्यकलापपर दृष्टि न डाल नरनारायणने आदरके रहने लगे। इसीप्रकार ८५ वत्सर बोते। उधर गन्धव साथ उन्हें अतिथिरूपसे ग्रहण किया । काम प्रभृति उर्व शोके लिये चिन्तान्वित थे। वह शाप छोड़ाने समागत देव अलौकिक गुणसे मोहित हो उनका और उर्वशीको स्वर्ग में फिर लाने का उपाय लड़ाने स्तव करने लगे। नरनारायणने उन्हें अद्भुतदर्शन लगे। उवं शो अपने दोनों मेष पुत्रवत् पालती थीं। समलङ्कत रमणो मूर्ति देखायी थी। उसके रूप एकदिन विश्वावसु नामक गन्धर्व प्रयाग जा रात्रि- सौन्दयसे देव श्रीहीन हो गये। नरनारायणने तब कालमें उर्व शोके पालित दोनों मेष ले भागे। उवर्शीने उन रमणियों मेंसे एक लेनेको कहा। आदेशानु अपने दोनो मेष जाते देख राजासे कहा । उस समय सार देवोंने उर्वशीको लिया और उन्हें प्रणामपूर्वक राजा नग्न पड़े थे। उर्व सौके बार बार मेषों की बात वर्गको नमन किया। कहनेसे वह नग्न ही गन्धर्व पर झपटे। उर्वशी