उशीनर-उशीरादि पाचन उशीनर (सं० पु०) उशीप्रदो वाञ्छाप्रदो नरो यत्र ।। संस्कृत पर्याय-अभय, नलद, सेव्य, अमृणाल,जलाशय, १गन्धार देश। २गन्धार जनपदवासी क्षत्रिय । लामज्जक, लघु,लय, अवदाह, इष्टकापथ, उषीर,मृणाल, "द्राविडाय कलिकाय पुलिन्दाशास्त्र शैनराः । लघु, लय, अवदान, इष्टकापथ, इन्द्रगुप्त, जलवास, कोलिसांमाहिषकान्तास्ता: चवियजातयः । हरिप्रिय, बीर, वीरण, समगन्धिक, रणप्रिय, वौरतरु, दृषलत्व परिगता ब्राह्मणानामदर्शनात् ।" (भारत, अनु २२२३) शिशिर, शीतमूलक, वितानमूलक, जलमेद, सुगन्धिक, ३ चन्द्रवंशीय एक राजा। यह शिवि राजाके सुगन्धिमूलक और कम्भु है। पिता और महामनाके पुत्र थे। इनके चरित सम्बन्ध खसका ढण ५।६ फीट पर्यन्त बढ़ता है। मूल में कहा है- पीताभ पांशुवर्ण, गन्ध तीब्र और प्रास्वाद कट है। यह ____ 'एक समय इन्द्र और अम्निने उशीनरका धर्मबल | भारत और ब्रह्मदेशमें उत्पन्न होता है। इसकी जड़को देखने के लिये श्येन एवं कपोतकी मूर्ति बनाई। और पल और टट्टीमें लगाते हैं। आजकल इसे युरोपमें श्यनके भयसे कपोतने राजाके अरु देशमें जाकर | कितने ही लोग सुगन्धि द्रव्यको तरह व्यवहार करते हैं। आश्रय लिया। तब श्य न कहने लगा-अपने भच्य सबको जलके साथ बांटकर मत्थे पर लगानेसे तरावट कपोतके पापका पाश्चय पकड़नेसे में भोजनाभावसे पाती है। वैद्यकके मतसे उशीर धर्म, दौगन्ध, दाह, अत्यन्त कातर हो रहा है। अतएव उसे देकर अपना रक्तपित्तका रोग, मोह, भ्रम, ज्वर तथा पित्तको दबाता धर्म बचाइये। राजाने उत्तर दिया-इस कपोतने और सुगन्ध बढ़ाता है। यह शीतल, लघु, तिक तुम्हारे भयसे घबड़ाकर ही हमारा आश्रय लिया है, एवं पाचक है। इसको छोड़ना हमारा धर्म नहीं, क्योंकि शरणागतका उशौरक ( स० क्लो०) उशीर स्वार्थे कन् । उशीर देखो। त्याग विप्र, गो और मावहत्याके तुल्य पातक है। उशीरगिरि (स• पु०) पर्वत विशेष, मैनाक पहाड़। श्येन बोला-आहारके लिये ही सब प्राणी बने और उशौरवोज (सं० पु.) १ उशौरका वीज, खसका . आदरसे ही सब जीव पले हैं; अन्यान्य सकल विषय छोड़ तुम । २ मैनाक पर्वत,हिमालयके उत्तर एक पहाड़। चिरकाल जी सकते हैं, किन्तु आहार न मिलनेसेही उशीरस्तम्ब (सं.पु.) खसका गट्ठा। लोग मरते हैं-पाहार न पानसे मेरा प्राण कैसे बचेगा उशीरादिचूर्ण (सं० लो०) चूर्ण विशेष, एक बुकनो। और मेरे मरनेसे स्त्रीपुत्रों का ठिकाना कहां लगेगा। उशीर, तगरपादुका, शुण्ठी, काकला, खेतचन्दन, रक्ता- इसलिये एक कपोतको रक्षासे बहु प्राणी नष्ट होते हैं। चन्दन, लवङ्ग, पिप्पलीमूल, पिप्पली, एला, नागेश्वर, अपर धर्मसे विरोध रखनेवाला धर्म कुधर्म है। इन मुस्तक, यष्टिमधु, कपूर, वंशलोचन और तेजःपत्र दोनोंके मध्य गुरु लघु देख उचित कर्तव्य निर्धारण सबको बराबर ले कूटे-पोसे। फिर समुदाय चूर्ण के कीजिये। राजाने कहा-पक्षिन् ! अपनी बातसे समान कृष्ण अगुरुका चूर्ण डाल अष्ट गुण शर्करा धर्मज्ञ समझ पड़ते भी तुम क्यों अधार्मिककी तरह | मिलानेसे यह प्रस्तुत होता है। उशीरादि चूर्ण प्राधा ऐसा अनुरोध कराते हो? क्षुधा मिटाने के लिये कयो तोला लेनेसे रता वमन, पिपासा और गावदाहका वेग तको छोड़ अपर जो चाहो, कहते ही पावोगे। इसपर मिट जाता है। इस औषधक सेवन बाद दो तोले यमने कपोतकी बराबर राजाका मांस मागा था।| गूलरका रस डेढ तोला चीनी मिलाकर पीना चाहिये। राजाने अविचलित चित्तसे वही मान कपोत परि- उशीरादि पाचन (स. क्लो०) पाचन विशेष, एक मित मांस देते देते क्रमसे सब शरीर काट डाला।। काढ़ा। उशौर, वान्ला, मुस्तक, धान्धक, शुण्ठी, वरा- (भारत वन १३१०) क्रान्ता,लोध्र एवं वेलशुण्ठी चार-चार पानेभर से माध उशीर (स'• पु. ली.) वश-ईरन्-कित्। वशः कित्। मेर जलमें पकाये। भाध पाव जल जलते-जलते बचने सच्३१ । सुगन्धिमूलक, वस। . | पर उतार कर पाचनको छान लेना चाहिये। इसे
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