पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४३४

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ऋणिधनिचक्र-ऋत पहले एकादश कोष्ठ बना चार भागसे, पूरण करना मन्त्रका वर्ण अधिक वा सम रहनेसे जपना योग्य चाहिये। उन्हीं कोठोंमें अकारादि क्रमसे हकार । है, किन्तु ऋण अधिक पड़नेसे जप करना निषिद्ध है। तक लिखते हैं। प्रथम पांच कोष्ठोंमें इस्त्र और दीर्घ । शून्य में मृत्यु होता है। क्रमसे दो-दो वर्ण बना फिर क्रमान्वयसे एक एक वर्ण ऋमिया (हिं. ) ऋषी देखो। खींचा जाता है। उसके बाद सब कोष्ठोंके ऊपर ऋणी ( स० त्रि.) ऋणमस्त्यस्य,ऋण-इनि। ऋणग्रस्त, सिलसिलेवार ६, ६, ६, ०, ३, ४, ४, ०,०, ०, ३ कज दार। और नीचे २, २, ५.०, ०, २, १, २, ४, ४, १ अक्षर ऋणोद्ग्राहण (सं० क्लो०) ऋणस्य उग्राहणं ६-तत् । प्राप्य ऋणको प्रार्थना करते भी यदि अधमर्ण नहीं रूपसे पृथक्कत वर्ण तथा ६ प्रभृति वर्गसमूहके साथ चुकाता, तो उसके साथ मनुका कहा व्यवहार चलाया मिलित अङ्क एवं साधकका नामाक्षरसमूह स्वरव्यञ्जन- जाता है-“धर्म, व्यवहार, छल, आचरित और बल- रूपसे पृथक कर २ प्रभृति अकसे मिलानेपर दोनों प्रयोगके उत्तरोत्तर किसी उपायसे प्राप्य अर्थका उद्दार अर्थात् साध्य और साधकके अङ्कराशियको ८से बाटते करना चाहिये। अधमणके आत्मीय सुहगणसे प्रिय हैं। दोनों में साध्यका अङ्क अधिक पानेसे ऋण और · वाक्यमें अर्थ प्रार्थन और अनुगमन करनेको धर्म कहते साधकका अङ्क अधिक पानेसे धन होता है। हैं। चुकते समय पर्यन्त अधमर्णको साक्षी दिव्यादिके मध्य प्राबद्ध करके रखने का नाम व्यवहार है। कौशल क्रममें संग्रह कर ऋणिकको धनसम्पत्तिसे ऋण वसूल करना छल कहलाता है। स्त्री, पुत्र, पशु प्रभृतिको रोक अथवा अधमर्णके दारदेशपर बैठकर ऋणको चुकती आचरित है। अपने मकान पर ला अधम- को मारना-पीटना. बलप्रयोग समझा जाता है।" कात्यायनने कहा है-राजा, प्रभु एवं विप्रसे मोठे बोल, ज्ञाति तथा शत्र से धोका दे, वणिक, कृषक तथा शिष्यसे कही बात कह और दृष्ट व्यक्तिसे मार-मार कर मान लीजिये-साध्यमन्त्र ई और साधकका नाम ऋणग्रहण करना चाहिये। हरि है। मन्त्रका अङ्क है और साधकका अङ्क ऋत् (धातु) भा० पर०, (इयङपक्षे ) पात्म (गत्यर्थे ) सक(अन्यार्थ) प्रक० सेट ।१ गमन करना, ( + का अङ्क १+२ और र+दू का अङ्क +२) जाना। २ स्पर्धा करना, बराबरी मिलाना। ३ घृणा ५ होता है। अतएव साध्य अङ्क और साधकके अङ्क । करना, नफरत रखना। ४ दया करना, रहम लाना। ५ दोनों में से भाग नहीं लगता। इसमें साधकको ५ ऐवये रखना, ताकतवर होना। अपेक्षा साध्यका एक अङ्क अधिक रहनसे ऋण पड़ता ऋत ( स० क्लो० ) ऋ-त । १ उच्छवृत्ति, सिल्ला बौन- है। विपरीत होनेसे धन समझा जाता। कर गुज़र करनेका रोजगार। - मन्त्र 'ऋणयुक्त' रहनेसे शुभप्रद और धनयुक्त रह- नेसे अशुभप्रद होता है। साध्य अर्थात् मन्त्र वर्ण अधिक "ऋतमुञ्चशीलं बममृतं स्वादयाचितम् । मृतन्तु याचितं भैच प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥” (मनु ४५) पड़नेसे जप करना चाहिये- २ जल, पानी। ३ सत्य, सचाई। ४ व्यवस्था, का- "मन्त्री यद्यधिकारः स्वात् तदा मन्त्र जपेत् सुधीः । समेऽपि च जन्मन्त्र न जपेत्तु ऋणाधिकै ॥ नन्। ५ धर्मनीति, पाकीज़ रस्म । (पु.)६ विष्णुः । शून्ये मृत्यु ' विजानीयात् तस्माच्छ में विवर्जयेत् ॥" "सहिसत्यमतञ्च व पवित्र' पुण्यमेव च।” (भारत १०१।२५३) Vol III. 109