पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४३८

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ऋतु-ऋतुकाल ४३७ लघुतासे प्राणोके शरीरमें वायुका सञ्चार होता है। वायु बहता है। पश्चिम दिकसे वायुसे मेघ आवष्ट प्राट् कालमें भूमि और प्राणीका देह दोनों प्रार्द्र होकर आकाशमण्डलको घेरते हैं। विद्युत् और पड़ जाते हैं। सञ्चित वायु शरीरमें व्याप्त रहता है। गभीर गर्जनके साथ पानी बरसता है। वर्षाकाल इसीसे वातिक व्याधि उठ खड़ा होता है। फिर वायु मकल नदी जलसे भर जाती हैं। पृथिवी बहु शस्यसे पित्त और कफके विदोषका सञ्चय भी, प्रकोपका परिशोभित होती है। मेघ अल्प गर्जनके साथ बरसता कारण बनता है। वर्षा, हेमन्त, ग्रीष्म, शरत्, वसन्त है। शरत्कालमें सूर्यके किरण खरतर बनते हैं। और प्रावट में पित्त, लेष्मा तथा वातका जो दोष बढ़ता, खेतवर्ण मेघ रहनेसे पाकाश निर्मल देख पड़ता है। उसका प्रतीकार करना पड़ता है। मकल भूमि सूख जाती है। सरोवरमें पद्मकुमुदादि किसी-किसी दिन प्रातःकाल वसन्त, मध्याह्न ग्रीष्म, खिलते हैं। अपराहू प्रावट, सन्धया वर्षा, अर्धरात्र शरत् और वसन्त कालपर यष्टिक, यव, शौत, मुग, नीवार, रात्रिके अवसान पर हेमन्तका लक्षण झलकता है। कोद्रव प्रभृति शस्य ; लाव, विष्किर (कपोत) प्रभृति- दिवारात्रिके मध्य ऐसा होनेसे वात, पित्त तथा का मांस ; सुष, पटोल, निम्ब, वार्ताकु प्रभृतिका श्लेभाका सञ्चय, प्रकोप एवं प्रतीकार पड़ने लगता व्यञ्जन ; तोक्षण, रुक्ष, कटु, क्षार, कषाय, शुष्क एवं है। ऋतुमें व्यतिक्रम पाने अर्थात् उचित समय उष्ण दृश्य, और सान, मैथुन, बलप्रयोग तथा विहार ऋतुका लक्षण न देखानसे श्रोषधि एवं जलको प्रभृति उपकारी होता है। मधुर रस, स्निग्ध और अवस्था बिगड़ती और मानवगणको नानाप्रकार गुरु द्रव्य छोड़ देना चाहिये। ग्रीष्म स्तुको यव, अनिष्टकर पीड़ा पकड़ती है। यथाकाल ऋतु होनेसे यष्टिक, गोधूम, पुरातन तण्डुल, उष्णोष्ण मांस रस ओषधि और जल दोनों स्वाभाविक अवस्थापर रहते और गुरु, बलकर एवं कफकर द्रव्य का व्यवहार अच्छा हैं। उनके व्यवहारसे जीवगणका आयु, बल और है। नदीका जल, उष्ण एवं रुक्ष द्रव्य, अल्प जलयुक्त वीर्य बढ़ता है। साधारणतः ऋतु. अन्यथा नहीं सक्त, रौद्र, व्यायाम, दिवा निद्रा, मैथन और मद्य होते। फिर भी समय समयपर ग्रहनक्षत्रको किसी सेवन करनेसे हानि होती है। जो प्रत्येक किसी गतिसे ऐसा देखने में आ जाता है। ऋतुमें इसोप्रकार व्यवहार करता, उसके ऋतुका रोग हेमन्त ऋतुमें उत्तर दिक्से शीतल वायु चला नहीं लगता। करता है। उसमें दिक् धूम तथा धूलि और भूमि । युरोपीय ज्योतिर्विद्गणके मतमें पृथिवीको प्राक्षिक हिमसे पावृत रहती है। ऐसे समय हस्ती प्रभृति स्थितिसे कक्षके सम्बन्ध पर सकल ऋतु उदित उद्भिभोजी प्राणी बलवान पड़ जाते हैं। शिशिर-. होते हैं। सूर्य के दक्षिण अयनान्तविन्दुसे महाविषुव- कालमें अतिशय शीत होता है। प्रबल वायु बहता रेखाको जाते मध्यका समय शीत, महाविषुवसे उत्त- और और हेमन्तकालका सकल लक्षण भलकने । रायणान्त विन्दुको जाते मध्यका समय वसन्त, उत्तरा- लगता है। वसन्त कालमें दक्षिण दिकसे वायु यणान्त विन्दुसे तुलाराशिको जाते मध्यका समय ग्रीष्म चलता है। पृथिवी नानाप्रकार उपादेय फलपुष्पसे और तुलाराशिसे दक्षिण अयनान्तविन्दुको जाते शरत् परिशोभित होती है। कोकिल प्रमृति पक्षिगणके काल कहाता हैं। सूयके द्वारा ऋतुका उत्ता परिवर्तन सङ्गीतसे पृथिवी मनोहर वेश बनाती है। गौभकालमें पृथिवीको ही गतिसे पड़ता है। मैऋत कोणसे असुखकर वायु पाता है। सूर्यका २ स्त्रीरजः । ऋतुमती देखो। ३ दीप्ति, रौशनी, किरण तीक्ष्ण पड़ जाता है। भूमि उत्तप्त और दिक् चमक। ४ मास, महीना। ५ सुवीर । प्रज्वलित प्राय देखाई देती है। वृक्ष पर्णशून्य और ऋतुकर (सं. पु०) महादेव, शकर । जीवजन्तु तृष्णातुर रहते हैं। प्रावटकालमें पश्चिमका ऋतुकाल (सं० पु.) ऋतोः कालः, ६-तत् । १ ऋतुका ___Vol. III. 110