पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४५०

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ऋष्यमूक अध्यापक विलसन साहबके मतानुसार पम्पा नदी ऋष्यमूक पर्वतसे निकल अनागुण्डोके निकट तुङ्गभद्रा- उदारो ब्रह्मणा चैव पूर्वकालेऽमिनिर्मितः ॥” ३३ में जा मिली है। (Wilson's Mackenzie-Collection, p. 195.) दुरारोहण, नागशिशु-समाकुल, पूर्व कालपर ब्रह्मा बैगलर साहब पम्याको अवस्थिति मध्यप्रटेशमें हारा निर्मित और पुष्यित-वृक्ष-शोभित ऋषामूक पर्वत बताते हैं। उसका वर्तमान नाम गम्य है। (Archana- उसो पम्पा नदोके सम्मुख है। logical Survey of India, Reports, Vol. XIII. p. 7) "अस्यास्तौरे तु पूर्वोक्तः पर्वतो धातुमस्थितः ॥२५ उक्त दोनों ही मत अयौक्तिक समझ पड़ते हैं। ऋष्यमूक इति ख्यातचिवपुष्थितपादपः ।" (अरचाकाण्ड ७५ सर्ग) रामायण में कहा है- इसी नदीके तौरपर विविध धातुमण्डित एवं “एष राम शिरः पन्था यव ते पुष्पिता टुमाः । पुष्पित वृक्षसमूहसे समाकीर्ण पूर्वोक्त ऋष्यमूक प्रतीची दिशिमाश्रित्य प्रकाशन्ते मनोरमा: २. पवत है। जम्ब पियालपनमान्यग्रोधवक्षतिन्दुकाः । रामचन्द्र के समय ऋष्यमूक पर्वत पर यह उद्भिद अश्त्या: कर्णिकाराय चूतासान्चे च पादपाः ॥३ उपजते थे- धन्वना भागवृक्षाच तिनका नक्तनालकाः। “सौमिव पञ्च पम्पाया दचिणे गिरिसानुषु । नौलागोका: कदम्बा करवीराय पुष्पिता: ॥४ पुष्पितां कर्णिकारस्य यष्टि परमशोभिताम् ॥ ७॥ अग्निमुख्या अशोकाच सुरक्ता: पारिभद्रकाः। । अधिकं शैलराजोऽयं धातुभिस्तु विभूषितः । ईक्रमन्तौ वरान् शैलान् शैलाच्छेलं वनाइनम् ॥१० विचित्र सृजते रेणु वायुवेगविघटितम् ॥ ७४ ॥ ततः पुष्करिणीं वीरौ पम्पां नान गमिष्यथः । गिरिप्रस्थास्तु सौमिवः सर्वत: सम्पपुष्पितः। अशकशमविधशां समतौर्धामशैवलाम् ॥११ निष्य : सस्तो रम्यैः प्रदोमा इव किंकैः ॥ ७ ॥ मुचुकुन्दार्जुनाचैव दृश्यन्ते गिरिसानुषु ! राम सनातवार का कमलोत्पलशोभिताम् । कैतकोद्दालकाचैव शिरोष: शिशपा धराः ॥ १॥ तब हंसा: प्रवा: क्रोचा: कुरराय व राघव ॥१२ वल्गुस्वरानि कुजन्ति पभ्यासलिलगौचराः।" (अरण्य ०३ सर्ग) शाल्मल्य: किंशुका व रता: कुरुवकास्तथा। तिनिशा नक्तमालाच चन्दना: स्वन्दनालथा ॥२॥ हे राम! ( पम्पाके) पश्चिम दिगवर्ती प्रदेश हिन्तालालिलकाच व नागवृक्षाच पुष्पिताः । जानेको यही पथ मङ्गलकर है। इसको चारो ओर पुष्मितान् पुष्पिताग्राभिलताभिः परिवेष्टितान् ॥ ३३॥" पुष्पयुक्त मनोहर जम्बु, पियाल, पनस, वट, प्लक्ष, तिन्दुक (किष्किन्धा १ सर्ग) अखत्थ, कर्णिकार, आम, धव, नागकेशर, करज, हे सुमित्रानन्दन! पम्पाके दक्षिण भागपर गिरि- तिलक, नील, अशोक, कदम्ब, करवीर, रक्तचन्दन, रक्त सानुमें परम शोभित सुपुष्यित कर्णिकाके वृक्ष देखिये। अशोक, पारिजात और अन्यान्य वृक्ष प्रकाशित हो रहे . यह शैलराज गैरिकादि धातुसमूहमे विभूषित हो है। है वीरदय ! आप एक पर्वतसे दूसरा पर्वत और वायुवेगमें विधूर्णित रेणु उत्पन्न करते हैं। गिरि- एक वनसे दूसरा वन-अनेक पर्वत एवं अनेक बन लांध सानु को चारो ओर पुष्पित पत्रहीन किंशुक चमक रहे हैं। मुचकुन्द, अजुन, केतक, उद्दालक, शिरीष, कंकड़ और सेवारका कहीं नाम नहीं, वालुका भरौ शिंशपा, धव, शाल्मली, किंशुक, रतकुरुवक, तिनिश, तथा खेत एवं नील पद्मिनी खिली है। हंस, मण्डूक, करन, चन्दन, स्यन्दन, हिन्ताल, पुवाग और तिलक क्रौच्च और कुरर पक्षी मनोहर स्वरसे बोला करते हैं।' प्रभृति पुष्पित वृक्ष कैसे सुहावने लगते हैं। अपरस्थानमें लिखते हैं- फिर रामायण को देखते ऋष्यमूक और मलय "ऋष्यमूकस्तु पम्पायाः पुरस्तात् पुष्पितद्रुमः । उभय पर्वत निकटस्थ हैं। ऋष्यमूक मलयका एक- मुदुःखारोहण व शिवनामाभिरचितः ॥३२ देशव” पर्वत है। Vol. III. - 113