पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४५२

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४५१ 'विषयोंके नाम यह है-पार्ष, छन्द, देवत्य, विनियोग लिखनको प्रणाली प्रायः इस ऋकारके न्याय रहती और ब्राह्मण । ( योगिया० ) है। केवल इख ऋकारके नीचे एक रेखा दक्षिण ऋष्यादिन्यास (सं० पु०) ऋष्यादीनां न्यासः, ६-तत्। दिकसे आरम्भ हो वक्रभावमें वाम दिक् पहुंच कुञ्चित तन्त्रोक्त न्याससमूह। मस्तकमें ऋषिन्यास, मुखमें पड़तो, फिर दक्षिण दिक्को चलती है। (वर्णोद्धारतन्त्र ) छन्दोन्यास, हृदयमें देवतान्यास, गुह्य देशमें वौजन्याम, इसका तन्त्रशास्त्रोक्त नाम क्रोध, अतिथोश, वाणी, पादहयमें शक्तिन्यास और सर्वाङ्गम कीलकन्याम । वामनो, गो, श्री, धृति, जव मुखी, निशानाथ, पन- करना चाहिये। (तन्त्र ) माला, विनष्टधी, शशिनो, मोचिका, श्रेष्ठा, टेवमाता, ऋष्व (सं० त्रि.) ऋष-व निपातनात् साधुः। १ वृहत्. प्रतिष्ठाता, एकदण्डाद्य, माता, हरिता, मिथुनोदया, बड़ा। २ महत्नाम, मशहर । कोमला, श्यामला, मेधी, प्रतिष्ठा, पति, अष्टमो, पावक ऋष्ववीर (स' त्रि.) वृहत् जीवों द्वारा बसा हुआ। और गन्धकषिणी है। ऋष्वौजस् (दै० त्रि०) महहलविशिष्ट, बड़ी ताकत ___ २ नासिका, नाक। ३ धातुका एक अनुबन्ध । रखनेवाला। "ऋच्यत्यहडोऽवच्र्वा ।' (कविकल्पद्रुम) ऋहत् (सं०वि०) रह-शट पृषोदरादित्वात् साधुः। (धातु) प्रादि• क्रादि० पर० स० सेट । खर्वावति, छोटा, कमजोर। ४ वाक्यारम्भ करना, बोलने लगना। ५ रक्षा करना, बचाना! ६ निन्दा करना,बुरा बताना। ७ भय देखना, खौफ दिलाना। ८ गमन करना, जाना। (क्लो.) ऋ-१ हिन्दी और संस्कृत के स्वरवर्णका अष्टम अक्षर ! ऋ-क्विप। ८ वक्षः, छाती। (स्त्रो०) १० दानवमाता। इसके उच्चारणका स्थान मृर्धा है। उदात्त, अनुदात्त ११ देवमाता। १२ स्म ति, याद। १३ गमन, चाल । एवं स्वरित भेदसे ऋ वर्ण तीन और अनुनासिक तथा (पु.) १३ दजुज। १५ भैरव, महादेव । निरनुनासिक भेदसे दो प्रकारका होता है। इसके । “कनन्ददाविः प्रमथेशसङ्ग” (उइट) ऋ ल-१ स्वरवर्णका नवम अक्षर। इसके उच्चारणका . इसका तन्त्रोक्त नाम स्थाणु, श्रीधर, शुद्ध, मेधा, स्थान दन्त है। यह वर्ण इस्ख, दीर्घ एवं नु त भेदले धनादक, वियत्, देवयोनि, दक्षगण्ड, महेश, कौन्त, सोन, अनुनासिक तथा निरनुनासिक भेदसे दो और रुद्रक, विश्व खर, दीघंजिह्वा, महेन्द्र, लाङ्गलि, परा, उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित भेदसे फिर तीन प्रकारका चन्द्रिका, पार्थिव, धूम्रा, विदन्त, कामवर्धन, शुचि- होता है। कामधेनुतन्त्र में लिखा, कि लकार कुण्डला- स्मिता. नवमौ. कान्ति, प्रामातकेश्वर, चित्ताकषियो, कृति और श्रेष्ठ देवता है। यह पञ्चगुण और काश और हतीयकुलसुन्दरी है। चतुर्ज्ञानमय रहता है। लकारमें ब्रह्मादि देव सर्वदा २ धातुका अनुबन्धविशेष। यह अनुबन्ध पड़नसे वास करते हैं। इसका प्रायण पांच, गुण तीन, विन्दु धातुके उत्तर लुङ् विभक्ति पर अङ लगता है। तीन और वर्ण पौत विद्युल्लता जैसा होता है। लिखन ____"लुरङ वान्।” (कविकल्पद्रुम) प्रणाली पर अधोदेशको कुण्डलाकृति रेखा वक्रभावमें (अव्य० ) ३ देवमाता। ४ भूमि। ५ पर्वत । में वामदिक् जाती है। लकारमें अग्नि, ल-१ स्वरवर्णका दशम अक्षर। इसका उच्चारण- महादेव और वायु रहा करते हैं। (वर्णोद्धारतन्त्र ) स्थान दन्त है। यह वर्ण दीर्घ एवं मृत तथा अनु-