पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४७४

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एकादशक-एकादशी ४७३ एकादशक (सं• वि.) एकादश परिमाणमस्व । गन्धभट्राका मूस, पुनर्गवा, नालुका, गन्धशटी, मृग- १ एकादश परिमाणविशिष्ट, ग्यारहवां। २ एका- नाभि, दशमूल, मैनफल, प्रियङ्ग, शाल, केतकी, तगर- दश, ग्यारह, ११। मूल, अश्वगन्धा, वाला, रेणुका, रसाचन, सेमरका एकादशवत्वः (सं० अव्य.) एकादशन्-कृत्वसुच। मुसरा, कटफल, भगुरु, श्यामालता वा अनन्तमूल, सखायाः क्रियामावत्तिगयने कृत्वमुच । पा ५१५॥१७। एकादश कुष्ठभन्नातकको मुष्टि, विफला, गुलफा, पद्मनागेश्वर, वार, ग्यारह मरतबा। लवत और त्रिकट प्रत्येक ३ पल छोडनसे यह औषध एकादशतनु (स• पु०) एकादश तनवो यस्थ, बहुव्रौ०।। बनता है। (प्रयोगासत ) महादेव। एकादश वार भिन्न भिन्न मूर्तिके परि- एकादशायस (स• पु. ) बनवृद्धिक अधिकारका एक ग्रहसे शिवको एकादशतनु वा एकादश रुद्र कहते भौषध, बदकी एक दवा । जारित लौह, पारद, गन्धक, हैं। एकादश नाम यह हैं-अज, एकपात् पहिवध, ताम, स्वर्णमाचिक, अन्न, हिल, कुङ्कम, पोखराज- पिणाको, अपराजित, वाम्बक, महेखर, वृषाकपि, मधि, शोष, पित्तल, विङ्ग, त्रिफला, हिङ्गु, यमानी, शम्भु, हरण और ईश्वर।। जौरक, कृष्णजीरक, पियालफल, वचा, ककटशृङ्गी, एकादशतम (स'• वि.) एकादशक, गयारहवां। मरिच, पिप्पली, राजपिप्पली, चवी, दुराचभा और एकादशहार (स. क्लो०) एकादश हाराणि रन्धा- चिवकमूल बराबर-बराबर पाद्कक रसमें भावना स्वस्य, बहनौ । शरीर, जिस्म। शरीरके मध्य दो। देनेसे यह औषध बनता है। चक्षु, दो कण, दो नासारन्ध, मुख, ब्रह्मरन्ध, नाभि, एकादशाह (स.पु.) एकादयानां यहां समाहारः, गुह्य और मै सब मिलाकर एकादश छिद्र होते हैं। एकादश महन्-टच । एकादश दिनका समाहार, साधारणतः ब्रह्मरन्ध और नाभिको छोड़ लोग नव गद्यारह रोजका परसा। २ एकादश दिवस साध्य हार ही मानते हैं। यन्न। ३ ब्राह्मणों का एकादश दिवसमें कतव्ये वाद।. एकादशशतिक महाप्रसारिणी तेल (सं० लो०) वात इस दिन मृतकके अर्थ वृषोत्सर्ग, महाब्राह्मणभोजन व्याधिका एक तेल। क्वाथार्थ समूलपत्रशाख गन्ध- और शय्यादानादि होता है। भद्रा साढ़े ३२. शरावक; झिण्डो, गुड़ ची एवं एरण्ड एकादशिन (स.वि.) एकादश संख्या परिमाण- मूल प्रत्येक २५ शरावक ; राम्रा, शिरोषत्वक, देवदारु मस्यास्तीति, एकादश-डिनि । एकादश संख्या परिमित, तथा केतकीका मूल प्रत्येक ६. शरावक ले ६४०.शरा- गारह अददवाला। वक जलमें पकाये और ६४ शरावक शेष रहनेसे उतारे। एकादशी (सं.स्त्री.) एकादशानां पूरणी, एकादशन- कांजी ६४ शरावक, दधिमण्ड १६ शरावक, शुक्ल डट-डी। १ तिथि विशेष। इस तिथिको शुक्लपक्ष- १६ शरावक, छागमांस ८ शरावक एवं जल ६४ शरा- पर सूर्यमण्डलसे चन्द्रमण्डलको एकादश निर्गत और वक डाल उबाले और १६ शरावक शेष रहनेपर। कृष्णपक्षपर सूर्य मण्डलमें चन्द्रमण्डलको एकादश उतारे। इक्षुरस १६ शरावक, दुग्ध १६ शरावक और कला प्रविष्ट होती हैं। इसका स्पतिशास्त्रोक्ता नामान्त पिडिङ्गफल, कर्कटशृङ्गी, जीवनीय दशक वा अष्टवर्ग, हरिदिन और हरिवासर है। काकोली, मनिष्ठा, क्षौरकाकोली, कोंचकी जड़, छोटी तन्त्रको व्यवस्थासे वैष्णव, सपुण्डक, गृही, विशे- इलायची, कपूर, लुबान, सरलकाष्ठ, कुडुम, जटामांसी, षतः ब्राह्मणको क्वणा एकादशी पर उपवासका नित्य नखी, क्वष्णागुरु, नीलोत्पल, पद्मकाष्ठ, हरिद्रा, अधिकार है। वैष्णव और उनके जैसे पन्चान्य व्यक्ति कसोल, नागेश्वर, खसको जड़, गुड़त्वक, सुपारी, हरिशयनके मध्यवर्ती समयमें कृष्णा एकादशी का व्रत जायफल, लताकस्तुरी, शतमूली, श्रीवासा, देवदारु. बराबर कर सकते हैं। अपुवक यहाँको सकल एका- स्वतचन्दन, वच, शलज, सैन्धव, शिलारस, मुस्तक, दशौके समय उपवास कर्तव्य है। काम्य उपवासमें . Vol. III 119