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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५४०

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चोम् ५३६ शिखामा दोपसकाशा यस्मिन्न परिवर्तते । घोरतर युद्ध चल हो रहा था, कि दोनोंके सम्म ख एक अर्घ मावा तु सा या प्रश्थवस्योपरिस्थिता । अद्भुत ज्योतिमय लिङ्ग प्राविभूत हुआ। उस समय कांस्वघण्टानिनादस्तु यथा लौयति शान्तये । दोनों युद्ध छोड़ अनुसन्धान करने लगे-यह ज्योतिर्मय पोद्धारस्तु तथा योज्यः शान्तये सर्वमिच्छता ॥” (ब्रह्मविद्योपनिषत) | लिङ्ग कहांसे आया है। विष्णु वराहमूर्ति धारण ब्रह्मवादी जिस 'ॐ' अक्षरको ब्रह्म बताते, उसका कर अधोगामी होते भी उस ज्योतिलिङ्गका मूल देख शरीर, स्थान, कान और लय सुनाते हैं। इस मङ्गल न सके थे। इधर ब्रह्मा हंसका रूप बना महावेगसे मय ओङ्कारके तीन देवता, तीन लोक, तीन वेद, तीन जपरको उड़, किन्तु लिङ्गके अन्ततक न पहुंचे। अग्नि और साढ़े तीन मात्रा हैं। ऋग्वेद, गाई- पीके दोनों शान्त पार लान्त हो ज्योतिलिङ्गको प्रणाम पत्याग्नि, पृथिवी और ब्रह्माको ब्रह्मवादियोंने करते खड़े रह गये। दोनों ही साचने लगे-यह प्रकारका शरीर कहा है। यजुर्वेद, अन्तरिक्ष, | क्या है, यह क्या है! दूसरे क्षण हो लिङ्गके मध्यसे दक्षिणाग्नि और भगवान् विष्णु उकारका शरीर हैं। शब्द निकला था। दोनोंने भों ओं षों उच्चारित अत सामवेद, स्वर्ग, पाहवनीय, और ईश्वर मकारका स्वर सुना। ब्रह्मा और विष्णु सोचते सोचते खड़े हो शरीर है। सूर्यमण्डल-सदृश दीप्तिमान् प्रकार शो गये थे-यह महाशब्द क्या है, यह महाशब्द क्या है! मध्य और चन्द्रसदृश दीप्तिमान उकार उक्त प्रकारके फिर दोनोंने देखा-लिङ्गके दक्षिण आद्यवर्थ अकार, मध्यं विराजता है। धमरहित अर्थात् अतिशय उत्तर उकार, मध्य मकार और ऊपर नादविन्दु है। दौप्तिथाली, अग्निसदृश एवं विद्युद्दाम जेसा शोभमान उसके ऊपर समुदायका समवायरूप पोहार शोभित मकार है। उक्त ओङ्कारको तीनों मात्रा क्रमसे चन्द्र, है। दक्षिण दिशाका प्रकार सूर्यमण्डल, उत्तरखित सूर्य और अग्नि के तुल्य तेजःसम्पन्न हैं। इससे दोप- उकार अग्नि और मध्यवर्ती मकार चन्द्रमण्डल जैसा सदृश शिखा और दीप्ति कभी विमक्त नहीं होती। तेजोमय है। ऊपर देख पड़नेवाला शुद्ध स्फटिकको प्रोङ्कारके उपरि भागमें रहनेवालीको अर्धमात्रा कहते | भांति तेजःसम्पन्न है। यह तुरीय हानसे त्रिगुणातीत, हैं। कांस्य और घण्टाके शब्द की तरह भोङ्कारके अमृतस्वरूप, निष्कल, निरुपद्रव, बन्द होन, केवल, उच्चारणसे भी चित्तमें शान्ति आती है। इसलिये शून्य, वाह्याभ्यन्तररहित, भोतर और वाहरका स्वरूप, समुदाय इष्ट फल पानको इच्छा रखनेवालेको सर्वदा आदि, मध्य एवं अन्तरहित तथा प्रानन्दकारण प्रोङ्कार उच्चारण करना चाहिये। है। प्रकार, उकार एवं मकार तीन मावाके तथा लिङ्गपुराणमें ओङ्कारको उत्पत्ति इस प्रकार | नाद पईमावाके रूपसे अवस्वान करता है। यही वर्णित है- शब्द ब्रह्म है। ऋक्, यजुः एवं साम तोनों वेद प्रकार, __ 'किसी समय भगवान् विष्णु प्रलयपयोधिके मध्य | उकार तथा मकार तीनों मावाके रूपसे अवस्थान शेषको शय्यापर सोये थे। ब्रह्माने उन्हें निकट जाकर करते हैं। यहो शब्दब्रह्म विश्वात्मा है। इसी जगा दिया। विष्णुने उठकर हंसते इंसते कहा समयसे अतीन्द्रिय प्रकाशक वेद आविर्भूत हुये। 'वत्स ब्रह्मन् ! तुम्हारा कुशल तो है। वत्स ! तुम्हारा इसौ वेदसे निखिल जगत्का मङ्गल बनता है । विष्ण मङ्गल तो है ?' ब्रह्माने ऐसा सम्बोधन मन ही मन इसी वेदवाक्य द्वारा परमेश्वरको समझ सके थे। कुछ बुरा समझ विष्णु से भत्सनापूर्वक पूछा था- फिर यजुर्वेदने कहा-भगवान् रुद्र अचिन्त्य हैं। "बड़ा आश्चर्य है ! मैं सृष्टि, स्थिति और प्रलयका कर्ता एकाचर प्रणव उन्होंका वाचक है। वह एकाचर- ई। पाप किस कारण मुझे, वत्स-वस कह कर वाच्य रुद्र हो परमकारण, अमृतस्वरूप, ऋतुखरूप, पुकारते हो? इसी प्रकार अनेक वाकवितण्डा | सत्यखरूप, आनन्दस्वरूप, और परात्पर परम ब्रह्मा- होते होते पन्तको हाथाबाहों को नौबत आ गयो।। स्वरूप हैं। शब्द-ब्रह्मरूप एकाचरसे प्रकार स्वरूप