इन्द्रभगिनी-इन्द्रभूति अग्नि, विजया, एरण्ड, वचा, निष्याव, शूरण तथा जीव व्याख्यान सुननेको प्रतीचा करने लगे, तो भग- निगुण्डोके द्रवमें घोटे। फिर सबको कङ्गनी सर्षपोंके वान्की दिव्यध्वनि हो न निकलो (तीर्थदरों को वाणी तैलमें पकाते और चणमात्र वटी बनाते हैं। आर्द्रकके प्रोष्ठ, तालु और जिह्वाके संसर्गसे नहीं निकलती, रसमें देनसे इन्द्रप्रस्थवटी अपस्मार रोगको नाश करती वल्कि मेघ गर्जनके समान मूर्धासे स्वरव्यन्जन- है। (रसेन्द्रसारस'ग्रह) रहित निकलती है। उसमें तपके प्रभावसे ऐसा इन्द्रभगिनी (सं० स्त्री०) शिवपत्नी। यह इन्द्रको अतिशय होता है कि सब देशवासी सब जातिके बहन थी। मनवाले प्राणी अपनी अपनी भाषामें उसे समझने इन्द्रभूति (सं० पु०) गणधरभेद । जैनियोंके चौबीसवें | लगते हैं।) दिव्यध्वनिकी प्रतीक्षा करते करते एक तीर्थंकर महावीर स्वामौके ११ गणधर थे। सर्वज्ञ | दिन दो दिन यहांतक कि व्यासठ दिनतक वीत गये. तीर्थङ्करको दिव्य ध्वनिका जो अर्थ समझकर लोगोंके परन्तु भगवान्को उपदेश वृष्टि न हुई। जब यह लिये उपदेश देते हैं वे श्रावक, श्राविका, मुनि और सब वृत्तान्त इन्द्र ने देखा, तो उसने अपने अवधिज्ञानसे आर्यका रूप चारप्रकारके गणके धारक-स्वामी गणधर (अवधिज्ञान शब्द देखो) निश्चय किया कि भगवानका वा गणेश कहलाते हैं। गणधर भिन्न भिन्न तीर्थङ्करोंके | कोई गणधर तो है ही नहीं, जो उनके दिव्य भिन्न भिन्न होते हैं। तदनुसार अन्तिम तीर्थङ्कर | उपदेशको धारणा रख लोगोंको समझा सके, इस- महावीर भगवान्के इन्द्रभूति प्रथम और मुख्य गण- लिये ही वाणी नहीं निसृत हुई है।" अब तो धर थे। इनके जीवनका वृत्तान्त जैनशास्त्रों में यों। इन्द्र को गणधरके खोजनेको आवश्यकता हुई। उसने लिखा है,- अपने अवधिज्ञानसे जब इन्द्रमतिको भावी गण- इन्द्रभूति जातिके गौतम ब्राह्मण थे। इनका जन्म- धर जाना, तो वह सीधा एक विद्यार्थीका वेशधारण स्थान गोतम नामक नगर था। ये अपने मा बापके कर उनके पास गया। उस समय इन्द्रभूति अपने इन्द्रभति, वायभूति और अग्निभति नामक तीन पत्र छात्रोंको पढ़ा रहे थे। इसलिये इन्द्र भी उन छात्रोंमें थे। ये तीनो ही भाई वैदिक धर्मानुयायी महाविद्वान् जा कर ही बैठ गया और उनका व्याख्यान सुनने थे। इनके पास देशदेशान्तरोंसे अनेक छात्र लगा। शास्त्राध्ययन करने आया करते थे। इन्द्रभूतिको उस समय किसी विषयका प्रतिपादन करके जिह्वापर समस्त वेद और शास्त्र नृत्य किया करते थे। इन्द्रभूतिने अपने विद्यार्थियोंसे पूछा-"क्यों! तुम . इस कारण इनको अपनी विद्यावत्ताका बड़ाही घमण्ड | सब लोगोंकी समझमें आ गया न ?” उत्तरमें अन्य । था। ये उस समय अपने शास्त्रज्ञानके सामने संसारके विद्यार्थियोंने तो 'हां' कह दिया, परन्तु छात्रवेशधारो विद्वानोंको तुच्छ समझते थे। इन्द्र अपनी नाक भौं सिकोड़ अरुचि प्रकट करने जब महावीर स्वामी चार घातिया (आत्माको लगा। उसके इस व्यापारसे असन्तुष्ट हो छात्रोंने अनन्त-ज्ञानशक्ति, अनन्त-दर्शनशक्ति, अनन्त-सुखशक्ति इन्द्रभूतिसे कहा-"महाराज! यह नवीन छात्र और अनन्त वीयशक्तिको पाच्छादन कर देनेवाले कर्म) आपकी अवज्ञा करता है।" यह सुन इन्द्रभूतिने कर्मों को नष्ट कर वैशाख शुक्लदशमोके दिन सर्वज्ञ कहा-"क्यों ! मैं समस्त शास्त्रोंका वेत्ता है। मेरे हो गये और इन्द्रको आन्नानुसार कुबेरने भगवान्का व्याख्यानको सब लोग पसन्द करते हैं फिर क्या समवशरण (व्याख्यानसभा.) रचकर तयार कर दिया, कारण है कि वह तुम्हें नहीं रुचा ?” उत्तरमें तो उनके व्याख्यानको सुनने के लिये देशदेशान्तरोंसे | इन्द्रने कहा-“यदि आप सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता हैं, मनुष्य, तियश्च और खर्गो से देवता पाने लगे। जब | तो मेरे एक भार्याछन्दका हो अर्थ कह दीजिये वह समाके बारही प्रकोष्ठ भर. गये और सम्पयो, प्रागन्तुक पार्या. यह है-: .... । Vol III. 14
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