पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५५१

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ओष्ठप्रकोप-ओस पोष्ठप्रकोप (म. पु.) श्रोष्ठस्य प्रकोपो यत्र, बहुव्री०। जलौका हारा रक्तमोक्षण कर शर्करा, खोल, मधु ओष्ठरोम देखो। एवं अनन्तमूल समभाग अथवा खसको जड़, रक्तचन्दन पोष्ठप्रान्त (सं० पु.) एकभाग, मुहका कोना। और क्षौरकाकोली दुग्धमें रगड़ प्रलेप चढ़ाते हैं। पोष्ठफला (सं० स्त्री.) विम्बीलता, कुंदरू। रक्त एवं अभिघात जन्य पोष्ठरोग में भी पित्तजन्य श्रोष्ठभा, औष्ठफला देखो। रोगको चिकित्सा कर्तव्य है। कफजन्य होनेसे प्रोष्ठरोग (सं पु०) ओष्ठगतो रोगः, मध्यपदलोपी०।। रक्तमोक्षणकर त्रिकर जक्षार तथा यवक्षार सम- पोष्ठगत रोग, होंठकी बीमारी। वैद्यक मतसे यह भाग मधुमें मिला प्रलेप लगाना चाहिये। मेदोजन्य आठ प्रकारका होता है-वायुजन्य, पित्तजन्य, ओष्ठरोगमें प्रियङ्ग एवं विफला पोस मधुके साथ प्रलय कफजन्य, साबिपातज, रक्तज, मांसज, मेदोज और देते हैं। केवल त्रिफलाचण और मधुके साथ प्रलेप अभिघातज अर्थात् प्रागन्तु। वातज प्रोष्ठरोगमें श्रोष्ठ करने पर भी उपकार पहुंचता है। सवैप्रकार गोष्ठ- कर्कश, कम्पयुक्त, स्तब्ध और वातज वेदनाविशिष्ट व्रण स्फटित होनेसे लोबान, धतूरेके फल और गेरुके रहता है। इस रोगमें श्रोष्ठ फट जानसे उत्पाटित | साथ तेल किंवा घत पका व्यवहार करना चाहिये। होनेकी तरह यातना मालम पड़ती है। पित्तज | श्रोष्ठा, ओष्ठो देखो। | ओष्ठागतप्राण (सं. त्रि.) पोष्ठयोरागताः प्राणा पिड़कासे व्याप्त रहता है। फिर उन पिड़का पक यस्य, बहुव्री०। मृतप्राय, जो मर रहा हो। जानेसे अत्यन्त दाहं उठने लगता है। श्लेष्मज ओष्ठ ओष्ठाधर (सं. पु.) पोष्ठश्च अधरम तौ, हन्द । रोगमें पोष्ठ-समवणं और वेदनाहीन पिडका पड़ती पोष्ठद्दय, दोनों होट। है। दोनों होंठ पिच्छिल, शीतलस्पर्श और गुरु पोष्ठी (स स्त्री.) ओष्ठ इव पाचरति, प्रोष्ठ-किप लगते हैं। सनिपातजन्य पोष्ठरोगमें बहुविध पिड़का अच-डी। विम्बफल, कुंदरू । उठती और पोष्ठहयके किसी स्थानपर कृष्णवर्ण, किसी प्रोष्ठोपमफला (सं० स्त्री०) प्रोष्ठोपमानि फलानि खानपर पीतवर्ण एवं किसी स्थानपर स्खेतवर्ण देख | यस्याः, बहुव्री। विम्बिका, कुदरू । पडती हैं। रतन पोष्ठरोगमें खजर-फलवर्ण पिड़का श्रोष्ठोपमफलिका, ओष्ठोपमफला देखो। निकलती हैं। उनको दबानेसे रक्त टपकता है। ओष्ठ्य (सं०वि०)) पोष्ठे भवः, पोष्ठ-यत्। पोष्ठसे पोष्ठदय रक्तवर्ण पड़ जाते हैं। मांसज ओष्ठरोगमें उत्पन्न होनेवाला, जो होटसे निकलता हो। पोष्ठहय गुरु, स्थूल और मांसपिण्डकी भांति उक्त पोष्ठ्ययोनि (सं• त्रि.) श्रोष्ठय शब्दसे उत्पन्न, जो लगते हैं। पोष्ठदेश में कोट उत्पन्न होते हैं। मेदोज फ़ तो आवाजसे पैदा हो। . प्रोष्ठरोगमें प्रोष्ठहय धृतमण्ड तुल्य, करड विशिष्ट और ओष्ठावर्ण (सं० पु. लो०) पोष्ठाचासो वर्णश्चेति, गुरु हो जाते हैं। फिर उनसे निर्मल स्फटिक-तुल्य | कर्मधा । ओष्ठसे उत्पन्न होनेवाला वर्ण, हर्फ गफ तो, नाव निरन्तर निकला करता है। अभिघातजन्य जो हर्फ लबसे निकलता हो। उ, ज, ओ, भो, प, पोष्ठरोगमें पोष्ठ विदीर्ण अथवा उत्पाटित हो जाता | फ, भ और म अक्षर उच्चारण-स्थान पोष्ठ रहने प्रोष्ठा- है। यह व्रण पारीग्य लाभ नहीं करता। वायुजन्य | वर्ण कहाता है। पोष्ठरोगमें तारपीनके तेल, लोबान, गुगगुल, यष्टि- ओष्ठास्थान (सं.वि.) प्रोष्ठ द्वारा उच्चारित, जो मधु और देवदारका प्रलेप चढ़ाना चाहिये। पैत्तिकमें | होटसे बोला जाता हो। सर्वप्रथम विरेचक औषधका प्रयोग आवश्यक है। ओष्ण (सं.वि.) पा-उष्णः। ईषत् उष्ण, थोड़ा फिर सिक रसपान एवं तिक्त रस उपकरणके साथ | गर्म। .. भोजनको व्यवस्था करना चाहिये। इसपर प्रथमतः | बोस (हिं: स्त्रो.) अवश्याय, शबनम, सोत, रातको