औषध ५७ वैद्यकमतसे औषध तीन भागमें विभक्त है। कच्चा भोर सोनालका पक्का फल पाच है। ओषधके कितने ही औषध कुपित दोष दृष्यके प्रशमक, कितने स्थान विशेषका उल्लेख न रहनेसे मूल हो लेना ही उसके शोधक और कितने ही स्वस्थ अवस्था में पड़ता है। योगविशेषमें औषधका परिमाण बो उपयोगी होते हैं। पिचकारीमें देय, विरेचक एवं लिखा जाता, कच्चा या गोला प्रोषध डालने में उससे वमनकारक द्रव्य और दैहिक रोगमें साधारणतः। द्विगुण देना उचित पाता है। तेल, घृत तथा मधु औषध उपयोगी है। मानस विषय समझ व्यवहार कर सकनेसे अमृत तुल्य रोगमें बुद्धि, धर्य और आमज्ञान हो औषध है। । फल मिलता-किस प्रकार कौन अवस्थामें क्या औषध जिस स्थानपर हल नहीं चलता एवं बृहत् चलता है। नहीं तो विष वच्च प्रभृतिको भांति औषध वृक्षादि नहीं रहता और जो स्थान निग्ध, मृदु, अपकार साधन करता है। नाम, रूप और गुण- समतल, कृष्णा, गौर अथवा लोहितवर्ण लगता, साधारणतः तीन ज्ञातव्य विषय समझ लेनेसे ही उसी स्थानका औषध लेना पड़ता है। वल्मोक, औषधका पूरा ज्ञान नहीं होता। उक्त समस्त श्मशान, देवमन्दिर और वालुकामय, गत वा प्रस्तर ज्ञातव्यकै साथ औषधके योगको प्रणाली समझना भी विशिष्ट तथा निम्रोवत स्थानमें उत्पन्न होनेवाला विशेष आवश्यक है। क्योंकि योमविशेषले विष भी औषध उपयोगी नहीं। पूर्वोक्त स्थानजात होते भी यदि अमृत बन जाता है। पौषध कोटजुष्ट अथवा अस्त्र, प्रातप, वायु, अग्नि, उपवासके पीछे जलपान करने, चौथ रहने, जल प्रभृतिके श्राघातसे मर जाये, तो उसको कभी अजौण मालूम पड़ने, पाहार ले चुकने और पिपासा हाथ न लगाये। फिर सरस, परिपुष्ट और मृत्तिकाको लगने पर संशोधन प्रभृति कोई औषध सेवन करना बहुदूर पर्यन्त भेद करनेवाला मूल ही ग्राह्य है। न चाहिये। साधारणतः अवहीन औषध सेवनको ___ कोई-कोई कहता-प्रावट, वर्षा, शरत, हेमन्त, हो व्यवस्था है। उससे पौषधका अधिक वीर्य प्रकाश वसन्त एवं ग्रीष्मकालको यथाक्रम मूल, पत्र, वक्, पाता और निःसन्देह रोग नष्ट हो जाता है। किन्तु चौर, सार तथा फल लेना पड़ता है। किन्तु सुश्रुतने बालक, वृद्ध, युवतो और मृदु व्यक्तिके लिये ऐसो ससमें दोष लगा कहा-सौम्य ऋतुमें सौम्य और व्यवस्था करना न चाहिये। इससे उन्हें अत्यन्त आम्नेय ऋतुमें पाम्नेय पोषध संग्रह करना उचित म्लानि लगती पोर बलको हानि पड़ता है। है। वीर्यवान पोर एक वत्सर पतिक्रम न करनेवाला आहारसे कुछ पहले उन्हें प्रौषध सेवन करना औषध हो रोगनाशक होता है। केवलमात्र मधु, चाहिये। उससे औषध अनाहत होनेपर वारम्बार 'घत, गुड, पिप्पलों और विडङ्ग द्रव्य पुरातन पड़नेसे मुखमें चढ़ नहीं सकता, परिपाक भो शीघ्र पड़ता उपकारप्रद है। पृथिवी एवं जलगुणाधिक्य स्थानका ओर वलक्षय नहौं लगता। प्रोषध परिपाक होने पर विरेचक, अग्नि, आकाश तथा वायुगुण-भूयिष्ठ : वायुका अनुलोम, स्वास्थ्य, क्षुधाकृष्णाका प्रकाश, स्वानका वमनविरेचन कारक और आकाशगुणबहुल मनमें आनन्द, शरीरका हलकापन, सकल इन्द्रियका स्थानका प्रशामक औषध अधिक गुणशाली होता है। शौच और शुद्ध उदगार होता है। औषध संपूर्ण स्थल मूलका काष्ठ छोड़ बल्कल और सूक्ष्म मूलका जीणं न पड़ते पथवा पाहार सम्यक परिपाक न होते काष्ठ और वल्कल समस्त हो ग्रहण करना चाहिये। औषध सेवन करनेसे पोडाको शान्ति न पाने पर वटादिका वल्कल, वीजादिका सार, तालिशादिका अन्यान्य रोगको भी उत्पत्ति होती है। स पत्र, त्रिफला प्रभृतिका फल, चित्रकका मूल, पोलका घोषध परिपाक न होते क्लान्ति, दाह, अवसवता, कन्द, धातकीका पुष्य, खदिरादिका सार और भ्रम, मूर्छा, शिरःपीड़ा, पसखबोध और बलहानिका कएकारीका समस्त अंश लेना पड़ता है। बेलका वेग बढ़ता है। यो रुप
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