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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६१

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इन्द्राह्वा-इन्द्रिय इन्द्राहा (सं० स्त्री०) इन्द्रवारुणी लता, इन्द्रायण।। दीख पड़ता है। नासिकासे गन्धको ग्रहण करते हैं। इन्द्रिय (सं० लो०) इन्द्रस्यात्मनो लिङ्गमणमापकम्, वाक्य ग्ट्रियसे बात करते हैं। हस्त द्वारा समस्त वस्तु उठायी जाती हैं। चरण यातायातका कार्य चलाता इन्द्र-छ। इन्द लिङ्केत्यादि । श ारा१३। १ बल, जोर। २ शुक्र, मनी। ३ शारीरिक शक्ति, जिस्मानी ताकत। है। पायु मल और उपस्थ मूत्रको त्याग करता है। ४ पांचको संख्या। ५ ज्ञानसाधन, कुव्वत मुदरिक। । अन्तःकरण तीन प्रकारका होता है,-बुद्यात्मका, इन्द्रिय तीन प्रकारको होती हैं, जानन्द्रिय, कम अहङ्कारात्मक और मनसात्मक। शरीरके मध्य कार्य न्द्रिय और अन्तरन्द्रिय। चक्षुः, कण, जिह्वा, नासिका। होनेसे ही मन, बुद्धि और अहङ्कारको अन्तःकरण और त्वको ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। वाक्य, पाणि, कहते हैं। कोई दश, कोयी ग्यारह, कोयो बारह, पाद, पायु और उपस्थका नाम कर्मेन्द्रिय है। मनः, कोयौ तेरह और कोई कोई चौदह इन्द्रियतक बुद्धि, अहङ्कार और चित्तको अन्तरन्ट्रिय समझना मानते हैं। .. चाहिये। इस प्रकार सब मिलाकर चौदह इन्द्रिय ___ जैन-शास्त्रानुसार इन्द्रियके दो भेद हैं द्रव्येन्द्रिय हैं। मनः सकल इन्द्रियका नियामक है। कर्ण के | और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, दिक, चर्मके वायु, चक्षुःके सूर्य, जिह्वाके वरुण, और श्रोत्रके भेदसे पांच प्रकार है। द्रव्य न्द्रियोंके नासिकाके अश्विनीकुमार, वाक्यक अग्नि, हस्तके इन्द्र, नित्ति और उपकरण ये दो और उत्तर भेद हैं। चरणके विष्णु, पायुके मित्र, उपस्थ के प्रजापति, मन:के शरीरकी रचना करनेवाले नाम कर्मको सहायतासे चन्द्र, बुद्धिके ब्रह्मा, अहङ्कारके शङ्कर और चित्तके जो रचना विशेष हो उसे निति कहते हैं और देवता अच्यत हैं। न्यायमतसे पृथिवीका नासिका, जो नित्तिका उपकार (रक्षण) करै वह उप- जलका जिह्वा, तेज:का चक्षुः, वायुका चम और | करण है। निवृत्ति और उपकरण भी दो दो आकाशका इन्द्रिय कर्ण होता है। सुश्रुतने बुद्धिका भेद हैं-वाह्य और आभ्यन्तर। पात्माकै प्रदेशका ब्रह्मा, अहङ्कारका ईश्वर, मनःका चन्द्र, गात्रका दिक, इन्द्रियोंके आकाररूप होना सो प्राभ्यन्तर निह त्ति है। चर्मका वायु, चक्षुःका सूर्य, जिह्वाका जल, नासिकाका पुहल (जिस द्रव्यमें स्पर्श, रस, गन्ध और व पाये पृथिवी, वाक्यका अग्नि, हस्तका इन्द्र, चरणका विष्णु | जांय उसे पुगल कहते हैं। यह मूर्तिक है श्रार सब और पायुका देवता मित्रको माना है। लोकमें देखा जाता है) परमाणुओं की इन्द्रियरूप इन्द्रियका व्यापार सकल कर्ताके अधीन रहता| रचना होना सो वाह्यनित्ति है। जैसे नत्र इन्द्रियमें है, इसलिये इन्द्रियका अपर नाम करण है,- नत्र इन्द्रियके आकाररूप प्रात्माके जितने प्रदेश “हत्वधीन: कर्ता कर्बधीन करणम्।” (पद्मनाभ) मसूरके समान फैले हैं, वे श्राभ्यन्तर-नित्ति हैं। नैयायिकोंके कथनानुसार मन कभी कर्ता और | और उसमें जितने पुद्गल परमाणु मसूरके श्राकारमै कभी करण बन जाता है। क्यों कि किसी रूपको देख- | परिणत हुये हैं वे वाह्य निवृत्ति हैं। नेत्र इन्द्रियमें नेके पहले मन चले, फिर दृष्टि डालनेपर दर्शनजन्य कृष्ण शुक्ल मण्डलको तरह सब इन्द्रियों में जो निहत्ति- सुखको भी वही अनुभव करेगा। दूसरे मनःके द्वारा का उपकार कर उसको आभ्यन्तर उपकरण कहते हैं। आत्मा भी दर्शनसुख पाता है। ज्ञानका कार्य मन | और उसी नेत्रमें पलक आदिके समान जो नित्तिका है। कारणसे भिन्न वैदान्तिक मनको इन्द्रिय नहीं उपकार कर उसको वाद्योपकरण कहते हैं। समझते और बुद्धिको भी इन्ट्रियसे पृथक् मानते हैं। भावेन्द्रिय दो प्रकारको है-लब्धि और उपयोग। कर्ण द्वारा बाहरी शब्द सुन पड़ता है, फिर ढांक देने- जिसके होनेसे आत्मा द्रव्येन्द्रियको रचनामें प्रवृत्ति करे पर भी भीतर ही भौतर आया करता है। ऐसी ज्ञानावरणीय कर्म (आत्माके ज्ञान गुणको वर्म द्वारा स्पर्शका अनुभव होता है। चक्षुःसे रूप | आच्छादन करनेवाले कर्म) को क्षयोपशम रूप