इन्द्रियसन्निकर्ष ६५ मानी है एक द्रव्येन्द्रिय जो विननी पलक गोलक आदि कहोगे कि चक्षु सन्निक्वष्ट होकर पदार्थको नहीं हैं और दूसरी भावेन्द्रिय जो ज्ञानात्मक हैं उनमें दिखाता इसमें संशय और भ्रान्ति है अर्थात यह भावेन्द्रियां प्रधान हैं और द्रव्येन्द्रियां गौण हैं इसलिये निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि चक्षु असनिकृष्ट चक्षु आदि इन्द्रियां सर्वथा वाह्य इन्द्रियां ही हैं यह होकर ही पदार्थको दिखाता है! सो भी ठीक नही, वात मिथ्या है और चक्षु सर्वथा वाद्य इन्द्रिय नहीं इस | क्योंकि 'चक्षु सन्निकृष्ट हो करही पदार्थों का ज्ञान वातके सिद्ध हो जानेपर वह सन्निकृष्ट होकर ही कराता हैं' इस सिद्धान्तमें भी उपयता ए मोजद है पदार्थको दिखाता है यह वात भी सर्वथा अयुक्त है। अर्थात् चक्षु सन्निवष्ट हो पदार्थका दर्शन कराता है यदि यह कहा जायगा कि चक्षु 'असनिकृष्ट वा असन्निकृष्ट हो यह संशय वा असन्निक्लष्ट होकर पदार्थका जनानेवाला है' अर्थात् चक्षुरिन्द्रिय और ही कराता है यह विपर्यय वहांपर भी निर्विघ्नरूपसे पदार्थका सन्निकर्ष न हो तो व्यवहित जो जमीन | विद्यमान है। आदिके भीतर रहनेबाले पदार्थ हैं और मेरु यदि कहोगे कि जिसप्रकार अग्नि तैजस पदार्थ कैलास आदि पदार्थ जो अत्यन्त दूर हैं उनका | है इसलिये उसमें रश्मियां विद्यमान रहती हैं उसी भी चक्षुसे दर्शन होना चाहिये क्योंकि उनके प्रकार चक्षु भी तैजस पदार्थ है इसलिये उसमें भी न देखने में कोई प्रतिबन्धक कारण नहिं जान रश्मियां विद्यमान है तथा रश्मियुक्त अग्नि जिस प्रकार पड़ता। और हमारे (प्रतिवादियोंके) मतमें तो सन्निकृष्ट हो पदार्थों का प्रकाशन करती है उसीप्रकार कोई दोष नहि आता क्योंकि हम चक्षुको तैजस | चक्षु भी सन्निकृष्ट हो पदार्थों का प्रकाशन करता है पदार्थ और उससे सूर्य आदि तेजिस्वी पदार्था के सो भी ठीक नहीं, क्योंकि जैनसिद्धान्तमें चक्षुको तैजस समान रश्मि निकलतीं हैं ऐसा मानते हैं इसलिये नही माना तथा जिसमें तेज रहता है वह उष्ण होता जहांतक रश्मिका सबन्ध रहता है वहां तकका पदार्थ है इसरोतिसे चक्षुका स्थान भी उष्ण मानना पडेगा दौखता है और जिस पदार्थके साथ रश्मिका संबध और वह प्रत्यक्षबाधित है क्योंकि यह कोई नहीं नहीं होता वह पदार्थ नहीं दीखता तथा कठिन मूर्तिक कह सकता कि चक्षुका स्थान अग्निके समान उष्ण पदार्थमें रश्मियां प्रतिबद्ध भी हो जाती हैं इसलिये है। तथा तेजका भासुरशुक्लरूप माना है यदि चक्षुको हमारे मतमें मेरु वा कैलास पर्वतके अन्तरालमें स्थित तैजस माना जायगा तो उसमें भासुरशुक्लरूप दीखना बहुतसे वन पर्वत आदिसे स्थगित हो जाने से नेत्रोंकी चाहिये। रश्मियां भाग नही वढ़ पातौं अत: मेरु कैलास कहोगे अदृष्टको कपासे चक्षुमें अनुष्णपना और आदिका ज्ञान नहीं होता। सो भी सर्वथा अयुक्त अभासुरपना है सो भी ठीक नही, क्योंकि अष्टको है, क्योंकि इस शङ्काका समाधान लोहमणिसे ही गुण माना है और वह निष्क्रिय है इसलिये उससे होजाता है अर्थात् जिसप्रकार लोहमणि लोहेको खरूपका नाश नहीं हो सकता-भासुरपना वा उष्ण- यद्यपि खींचती है परन्तु वह व्यवहित लोहेको वा पना नहीं मिट सकता। अधिक दूरपर पड़े हुये लोहेको नही खोंचतो उसी यदि कहोगे नक्तंचर मार्जार आदिके नेत्रों में रश्मि प्रकार चक्षु भी पदार्थको दिखाता है परन्तु अयोग्य देखने में आती हैं इसलिये अवश्य चक्षु तैजसपदार्थ व्यवहित और अधिक तो नहीं। तथा है। सोभी ठीक नहीं क्योंकि किसी किसोके पुलमय प्रतिवादियोंने जो चक्षुको तैजस पदार्थ मानकर उसकी | चक्षु भासुररूप भी परिणत हो जाते हैं पुनलशब्द देखो। रश्मिकी कल्पना और उनका व्यवधान माना है वह | इसलिये नक्तंचर जीवोंके चक्षुओंमें रश्मि देखकर सब प्रमाणबाधित है-कोई भी प्रमाण इस वातको सिद्ध । जीवों के चक्षुओंमें रश्मिका निश्चय करनेसे कभी चक्षु नहि कर सकता। तेजस पदार्थ सिद्ध नही हो सकता। Vol. III. 17
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