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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६६३

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कण्ठक-कगठमाला . कण्ठदेशमें विशुद्ध नामक षोड़श स्वरयुक्त, धमवर्ण | देशे पास्ते, कण्ठतल-आस-ख ल्-टाप् अत इत्वम् । और महाप्रभाविशिष्ट षोडशदल पद्मका अवस्थान है। अश्ववन्धनरज्ज, घोड़ा बांधनेको रस्मो या बद्दी। "तदूर्धन्तु विश्वद्धाख्य दलषोडशपङजम् । कण्ठदन (सं.वि.) कण्ठः परिमाणमस्य, कण्ठ-दनच । खरेः षोड़शभियुकधू मवर्ण: महाप्रभम् । प्रमाणे यसज्दन्नमावचः। पा ॥२३७। गलपरिमाग, गलेतक विश्वचपामाख्यातमाकाशाख्यमहाङ्ग तम्।" (गौतमतन्त्र ) पहुंचनेवाला। ३ ध्वनि, आवाज । ४ सन्निधान, कुब । ५ मदन- | कण्ठधान (सं० पु० ) १ जनपदविशेष, कोई मुल्क । वृक्ष, मैनफलका पेड़। ६ गर्भस्फ टन, रेहमको २ सज्जनपदवासीय जातिविशेष, एक कौम। शिगुफ्तगी। यह शब्द उपमारूपसे शाखाविशिष्ट (बृहत्संहिता १४।२६) कलिकाका द्योतक है। ७ होमकुण्डके बाहर पङ्गलि- | कण्ठनाली (सं० लो०) कण्ठगता नाड़ी डस्य लत्वम्, परिमित स्थान। ८मुनि। फैन । १. संस्कृतके मध्यपदलो। कण्ठास्थि स्थल धमनी, गलेको मोटी एक प्राचीन वैयाकरण। क्षीरस्वामीने अपनी 'क्षौर-| नलो। भुक्त द्रव्य इसी नाड़ीकी राह नीचे चलता तरङ्गिणी में इनका वचन उद्दत किया है। पौर शब्दादि भी इसी नाड़ीसे निकलता है। कण्ठक (स• पु०) कण्ठ-स्वार्थ कन्। १ कण्ठ, | कण्ठनोड़क (सं० पु०) कण्ठे प्रासादवृक्षादीनां शिरो- टेंटवा। २ शाक्यमुनिका अश्व। भाग नोडं यस्य, कण्ठनोड़-कए । चिल्लपक्षी, चौल। कण्ठकुन ( सं० पु० ) सन्निपातज्वरविशेष, एक कण्ठनोलक (सं• पु०) कण्ठं धारकस्य कण्ठादिक- बोखार। इसमें शिरोति, कण्ठग्रह, दाह, मोह, मूवंदेहं नीलयति स्वशिखाकज्जलेन नीलवर्ण करोति. कम्प, ज्वर, रक्तसमीरणार्ति, हनुग्रह, ताप, विलाप | कण्ठ-नोल-णिच-ख ल। १ उल्का, मसाल। २ चिस और मूळका वेग बढ़ता है। कण्ठकुन कष्टसाध्य है। | पक्षी, चौल। ( भावप्रकाश ) | कण्ठपाशक (सं० पु०) कण्ठे पाश इव कार्यात कण्ठकुल्लक, कण्ठकुन देखो। प्रकाशते, कण्ठ-पाश-कै-क। १ करिगलवेष्टनरन्न, कण्ठकुत्रप्रतीकार (सं० पु.) कण्ठकुन नामक हाथोके गलेमें बंधनेवाली रस्मी। २ कण्ठपाश, पगाड़ी, सविपातन्वरको चिकित्सा, सोनों माहाके बिगाइसे सरक-फांसी। पैदा हुये बुखारको एक इन्लाज। . कण्ठबन्ध (सं० पु.) कण्ठे बन्धः, ७-तत्। १ करि- कण्ठ कूजन (सं० क्ली. ) गलकूजन, गुल की गुटरग। कण्ठ-बन्धनरज्जु, हाथोके गलेमें बांधी जानेवाली कण्ठकूणिका (सं० स्त्री.) कण्ठइव कण्ठध्वनिरिव रस्त्री। २ गलबन्धन, गलेको डोर।। कूणयति, कण्ठ-कुण-ख ल-टाप् प्रत इत्वम्। वीणा, कण्ठभूषा (स. स्त्री०) कण्ठस्य भूषा अलङ्कारः, बौन। कण्ठके स्वरको भांति इसका स्वर भी प्रति तत्। गलदेशका अलङ्कार, गलेका जेवर। पट्टे, सुस्पष्ट होता है। हलके, तौक, गण्डे, कण्ठी और हंसलोको कण्ठभूषा कण्हग (सं० त्रि.) कण्ठदेश पर्यन्त व्याप्त, गलेतक | कहते हैं। इसका संस्कृत पर्याय अवेय, ग्रेव, रुचक फैला हुपा। और निष्क है। कण्ठगत ( स० त्रि.) कण्ठे गतः, ७-तत् । १ कण्ठस्थ, कण्ठमणि (स० पु.) कण्ठे धार्यों मणिः, मध्य- गले में लगा हुा । २ कण्ठागत,गलेतक पहुंचा हुश्रा।। पदलो । गलदेशमें धारणोपयोगी मणि, गले में पहना कण्ठग्रह, कण्ठकुन देखो। जानेवाला जवाहर । संस्कृत पर्याय-काकल है। कण्ठतः (सं• अव्य ) कण्ठसे, अलाहिदा लफू जोंके कण्ठमाला (सं० स्त्री०) कण्ठे धार्या माला हारविशेषः, साथ, साफ-साफ मध्यपदलो। कण्ठदेशमें धारणीय रत्न, गले में पहना कण्डतलासिका (सं० स्त्री०) कण्ठतले पखानां कण्ठ- | जानेवाला जवाहर।