०३६ कन्दलौभाष्यकार-कन्दुक कन्दलीभाष्यकार-सस्वतके एक प्राचीन विद्वान्।। व्यवहत होनेवाला कन्द, जो डला तरकारीमें लगता हेमादिने इनका उल्लेख किया है। हो। कन्दवर्ग देखो। समस्त कन्दशाकमें शूरण श्रेष्ठ कन्दवर्ग (स.पु.) कन्दजातिमात्र, हरेक किस्मके हलेका नवीश विदारीकन्ट. शतावरी. सणाल, कन्दशूरण (सं० पु०) कन्द एव शूरणः। शूरणकन्द, विस, कशेरु, शृङ्गाट, पिण्डालु, मध्वालु, इस्त्यालु, जिमीकन्द। ओल देखो। शङ्खाल, रक्तालुक, इन्दीवर और उतपल आदि कन्दोंके | कन्दसन (सं० लो०) योन्यश. औरतोंके पेशाबको समूहको 'कन्दवर्ग' कहते हैं। उक्त कन्द रक्तपित्तहर, | जगह होनेवाली एक बीमारी। कन्द देखो। यौत, मधुर, गुरु, बहुशुक्रकर और स्तन्य वर्धन होते कन्दसम्भव (सं.वि.) कन्दसे उत्पन्न होनेवाला, हैं। (सुनुव) जोडलेसे पैदा हो। कन्दवर्धन (सं० पु०) कन्देन वर्धते, कन्द-वध ल्यु । कन्दसार (सं० क्लो०) कन्दानां सारो यत्र, बहुव्रो । १शूरण, जिमीकन्द। बोल देखो। २ कटशूरण, किन- १ चन्दनवन। २ ओल प्रभृति कन्दसमूह, जिमौंकन्द किना जिमोंकन्द। वगैरह डले। ३ इन्द्रका उद्यान। कन्दवल्ली ( सं० स्त्री०) कन्दाकारा वल्ली, मध्यपदलो। कन्दा (सं० स्त्री०) कन्दगुड़ चो, डलको गुर्च। १ वन्ध्याकर्कोटकी, कड़वी ककड़ी। कन्दाव्य (स• पु०) कन्देन पाव्यः। भूमिकुष्माण्ड, कन्दविष (सं० पु०) विषाक्त कन्दका वृक्ष, जहरीले भुर्यिकुम्हड़ा। डलेका पौदा। कालकूट, वत्सनाम, सर्षप, पालक, कन्दामृता (स. स्त्री०) कन्दप्रधाना अमृता, मध्य- कर्दम, वैराटक, मुस्तक, शृङ्गी, पुण्डरीक, मूलक, पदलो। गुड़ चौविशेष, डलेको गुच। हलाहल, महाविष और कर्कट शृङ्ग-तेरह कन्दविष | कन्दारा-कर्णाटी ब्राह्मणों की एक श्रेणी। होते हैं। इनमें ४ वत्सनाभ, २ मुस्तक, ६ सर्षप कर्णाटबाधाण देखो। और १ शिष्ट है। सब कन्दजविष उग्रवौर्य, रुक्ष, कन्दाहे (सं० पु.) कन्दशूरण, जिमीकन्द । उष्ण, तीक्ष्ण, सूक्ष्म, पाशव्यवायी, विकाशी, विशद, कन्दालु . ( स० पु. ) कन्दमय भालुः, मध्यपदलो। सघु और अपाकी होते हैं। कालकूट से स्पर्शज्ञान, | । १ कासालु, एक रताल। २ भूमिकुष्माण्ड, भुयिंकुम्हड़ा। वेपथु और स्तम्भ पड़ता है। वत्सनाम ग्रीवास्तम्भ ३ विपर्णिका, एक डला। समाता और विट, मूत्र तथा नेत्रमें पीतता लाता है। कन्दिरी (सं० स्त्री०) कन्द-दरच-डीष । लज्जालुवक्ष, सर्षपका कन्द वातवैगुण्य, पनाह और ग्रन्थि उत्पन्न | लाजवन्ती। करता है। पालकसे ग्रीवादौबंख्य और वाक सङ्ग कन्दी (सं० पु.) कन्दो ऽस्यास्ति, कन्द-अच्। कट- होता है। कदमसे प्रसेक, विड़भेद और नेत्रपीतताका | वेग बढ़ता है। वैराटक पङ्गदुःख और शिरोरोग लगा | कन्दु (सं० पु०-स्त्री.) स्कन्द- सलोपश्च। स्कन्दः देता है। मुस्तकसे गावस्तम्भ और वेपथ होता है। सलोपश्च ।। उण १।१५। १ वेदनपत्र, तवा । इसका अपर शृङ्गौविष बङ्गसाद, दाह और उदरको बढ़ाता है। संस्कृत नाम वेदनी है। २ लौहनिर्मित पाकपात पुण्डरीकसे चक्षुवों में रक्तत्व पाता और सदर बढ़ जाता लोहेको कड़ाही। ३ भर्जनपात्र, भूजनेका बरतन। है। मूलक वैवण्य, छर्दि, हिक्का, शोफ और मूढ़ता | ४ सुराकरणपात्र, शराब तैयार करने का बरतन। उपजाता है। इलाहलसे मनुष्यको सांस रुकती है। कन्दुक (स• पु० ) के मुखं ददाति, दा-डु संज्ञायां महाविषहृदयमें ग्रन्थि उपजाता और शूल बढ़ाता है। कन् । १गण्डक, गेंद। (को०) २ गलतकिया। वर्कटगृहसे मनुष्य चित गिर जाता है। (सुचव) पर, कोपल। ४ पूगफल, सुपारो। ५ छन्दो- दशाक (म.की.) कन्दप्रधानं शाकम। थाकमें। विशेष। यह वयोटश अक्षरविशिय होता है। ..
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