पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/७४९

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कम्पनाति ७४2 देवता प्रथिवीपर रहते हैं। किन्तु उनमें कोई । निर्दिष्ट कालपर हुवा करती है। जो सकल द्रव्य मनुथको देख नहीं पचता। पशु-पची उन्हें देखते देवताबोंको चढते, उनमें प्रत्येकका स्वतन्त्र खतम हैं। उत्समके द्रव्यादि खा कम्बोंके देवता अपना मन्त्र पढ़ते हैं। बाम चमति। फिर भी समय समय वह स्वयं यह लोग घामाका पस्तित्व खोकार करते हैं। पाहारान्वेषणको प्रथिवी पर पाते रहते। विम किन्तु उसके चार भाग है।पामाका प्रथमांथ निज- बांझ बास लगनेसे कृषक सिद्धान्त करते-कोई देवता । वत सुकर्मका सुख तथा द्वितीयांश दुष्कर्मका दुःख आकर इसका शस्त्र ले गये हैं। उठाता, तृतीयांश फिर जन्म पाता पोर चतुर्थाश मर कन्ध प्रति पूनामें वलि चढ़ाते हैं। जिस पूनामें जाता है। पलिको पावश्यकता नहीं पड़ती, व्यवहारवशतः प्रति प्राममें इनके पुरोहित रहते हैं। कैवल उसमें भी शूकरहत्या चलती है। शूकर इनके निकट बेरापेन और तारा देवीके पूजाकाख हो पुरोहित सिमा : मह जाता, प्रत्येक पूजाके उपकरणका पाता है। किसी दूसरे कर्म वा अन्यान्य देवताको अङ्गमाव कहाता है। पूजामें प्रति एहसके महकर्ता ही पुरोहितका यह सर्वापचा उत्कश वलि पृथ्वोदेवताको उतसगं । कार्य चलाते है। पहले ऐसा न रहा। कोई कोई करते हैं। पृथ्वी देवताको दो प्रकार पूजा होती वंश पुत्रपौत्रादिक्रमसे किसी न किसी देवताका है। समग्र जाति एकत्र हो एक प्रकार पूजा करतो, पूजक था। किन्तु पाजकल बेरा-पेन और सारा फिर प्रत्येक गृहस्थके घर अपने-अपने स्वार्थके खिये देवीको पूजाको छोड़ पुरोहित नामक खतन्त्र व्यक्ति दूसरी पूजा चढ़ती है। नरपलि व्यतीत पन्य वलि भी। दूसरे स्थानपर देख नहीं पड़ता। सारा और पून्हें देना पड़ता है। खेत बोने और काटनेके समय बेराके पूजका सड़ने-भिड़ने तथा साधारण लोगोंके वलि देनेका नियम है। किन्तु उसमें सामान्य हो साथ एकत्र भोजन करनेसे दूर रहते हैं। वह ऐसे- वलि लगता है। वैसके हाथका बना खाद्यादि भी खा नहीं सकते। पहले मौरीका भय वा टुभिच स्वगने अथवा समग्र कन्ध सबको पुरोहित बना लेते हैं। किन्तु पुरोहित जातिके प्रतिनिधिस्वरूप प्रधामके संसारपर अकस्मात् होनेवालेको अपना पद ग्रहण करनसे पहले लोगोंके कोई विषम विपद पड़नेसे मरवसि चढ़ाते थे। फिर मनमें विश्वास समाना पड़ता-स्वयं देवताने मुझे साधारण लोग भी अपनी अपनी सांसारिक विषम खप्रमें दर्शन दे अपने पुरोहित पदपर नियत किया दुर्घटनाके प्रस्तसे उधार होनेको मरबलि देते रहे। है। पुरोहितोंको कोई वृत्ति नहीं होती। उन्हें जब किसीको व्याध खा जाता, तब उसके परिवार- केवल दक्षिणापर निर्भर कर चलना पड़ता है। किन्तु धर्गको विश्वास पाता था-पृथौ देवताको एक नर शान्ति स्वस्त्ययन करा यदि कोई पारितोषिक वा बलिका प्रयोजन है। वत्क्षणात् वलिका पात्र पारिश्रमिक वरूप कुछ देने को लाता, तो ले साहीत न होनेसे रहस्थ किसी कागलका कान कटा लिया जाता है। हिन्दु पुरोहित इन लोगोंमें पोझाका और रख भमिपर बहा प्रतिमा करते-एक वत्सरके काम करते हैं। उपदेवताके आविर्भावमें वह भाडते. फकते रहते हैं। इनमें एक बोके सोम देवनका मध्य इम नरवति देंगे। कोई कोई निज-पुत्रका काम काट भी ऐसी ही प्रतिज्ञा करता था। कार्य भी करते हैं। प्रायः निवौके उडिया ही देवन्त बन जाते, किन्तु कर्कप और समका नामक यदि एक वत्सर में वलिका पात्र म मिसता, तो स्थानपर कन्व-दैवच भी देखने में पाते हैं। उडिया गृहस्थको पपमा एक पुत्र चढ़ा देवऋण चुकाना। देवन (जानी या देसोरी) पञ्चाङ्गको अवहारमें खावे, पड़ता। उस समस्त देवतावोंको पूजा समय-समय वा| किन्तु कन्ध देवन शरीरमत स्वचवायचच देख कर ही Vol. III 188