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सर्वनाम कहते हैं।" यह लक्षण "मैं", "तू", "कौन" आदि सर्वनामों में घटित नहीं होता; इसलिए इसमें अव्याप्ति दोष है, और कहीं कहीं यह संज्ञाओं में भी घटित हो सकता है; इसलिए इसमें अतिव्याप्ति दोष भी है। एक ही संज्ञा का उपयोग बार बार करने से भाषा की दरिद्रता सूचित होती है, इसलिए एक संज्ञा के बदले उसी अर्थ की दूसरी संज्ञा का उपयोग करने की चाल है। यह बात छंद के विचार से कविता में बहुधा होती है, जैसे 'मनुष्य' के बदले 'मनुज', 'मानव', 'नर' आदि शब्द लिखे जाते हैं। सर्वनाम के पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार इन सब पर्यायवाची शब्दों को भी सर्वनाम कहना पड़ेगा। यद्यपि सर्वनाम के कारण संज्ञा को बार बार नहीं दुहराना पड़ता, तथापि सर्वनाम का यह उपयोग उसका असाधारण धर्म नहीं है।

भाषाचंद्रोदय में "सर्वनाम" के लिए "संज्ञाप्रतिनिधि" शब्द का उपयोग किया गया है और संज्ञाप्रतिनिधि के कई भेदों में एक का नाम "सर्वनाम" रखा गया है। सर्वनाम के भेदों की मीमांसा इस अध्याय के अंत में की जायगी, परंतु "संज्ञाप्रतिनिधि" शब्द के विषय में केवल यही कहा जा सकता है कि हिंदी में "सर्वनाम" शब्द इतना रूढ़ हो गया है कि उसे बदलने से कोई लाभ नहीं है।]

११४—हिंदी में सब मिलाकर ११ सर्वनाम हैं—मैं, तू, आप, यह, वह, सो, जो, कोई, कुछ, कौन, क्या।

११५—प्रयोग के अनुसार सर्वनामों के छ भेद हैं—

( १ ) पुरुषवाचक—मैं, तू, आप (आदरसूचक)।

( २ ) निजवाचक—आप।

( ३ ) निश्चयवाचक—यह, वह, सो।

( ४ ) संबंधवाचक—जो।

( ५ ) प्रश्नवाचक—कौन, क्या।

( ६ ) अनिश्चयवाचक—कोई, कुछ।

११६—वक्ता अथवा लेखक की दृष्टि से संपूर्ण सृष्टि के तीन भाग किये जाते हैं—पहला,—स्वयं वक्ता वा लेखक, दूसरा,—श्रोता किंवा पाठक, और तीसरा,—कथाविषय अर्थात् वक्ता और श्रोता को