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लिए कभी कभी लेखक लोग असावधानी से तुरंतही "वह" लाते हैं, जैसे, “भला, महाराज, जब यह ऐसे दानी हैं तो उनकी लक्ष्मी कैसे स्थिर है?"( सत्य० ) । “जब मैं इन पेड़ों के पास से आया था तब तो उनमें फल-फूल कुछ भी नहीं था ।" ( गुटका० )

{ सू०---शब्दों के प्रयोग में ऐसी अस्थिरता से आशय समझने में कठिनाई होती है, और यह प्रयोग दूषित भी है ।

१३०----सो--( दोनों वचन ) ।

यह सर्वनाम बहुधा संबंधवाचक सर्वनाम “जो" के साथ आता है (अं०-१३४), और इसका अर्थ संज्ञा के वचन के अनु- सार “वह” वा “वे" होता है, जैसे, जिस बात की चिंता महा- राज को है सो ( वह ) कभी न हुई होगी ।" ( शकु० )। “जिन पौधो को तू सीच चुकी है सो (वे) तो इसी ग्रीष्म ऋतु से फूलेगे ।"( तथा ) । “आप जो न करो सो घोडा है ।" ( मुद्रा० )।

(अ) “वह"वा “वे" के समान "सो" अलग वाक्य में नहीं आता और न उसका प्रयोग "जो" के पहले होता है, परंतु कविता मे बहुधा इन नियमों का उल्लंघन हो जाता है; जैसे, "सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय ।" ( सत० )। "सो सुनि भयउ भूप उर सोचू ।” ( राम० ) ।

(आ) “सो" कभी कभी समुच्चय-बोधक के समान उपयोग में आता है और उसका अर्थ “इसलिए" या "तब" होता है; जैसे, "तैने भी कभी उसका नाम नहीं लिया, सो क्या तू भी उसे मेरी ही भॉति भूल गया ?" ( शकु० )। "मलयकेतु हम लोगो से लड़ने के लिए उद्यत हो रहा है, सो यह लडाई के उद्योग का समय है।” ( मुद्रा० ) ।।

१३१-जिस सर्वनाम से किसी विशेष वस्तु का बोध नही