पृष्ठ:हिंदी व्याकरण.pdf/१९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१७३)

अथ, इति—ये अव्यय क्रमश पुस्तक वा उसके खंड अथवा कथा के आरंभ और अंत में आते हैँ। जैसे, "अथ कथा आरंभ" (प्रेम॰)। "इति प्रस्तावना।" (सत्य॰)। "अथ" का प्रयोग आजकल घट रहा है, परतु पुस्तकों के अंत में बहुधा "इति," (अथवा "सम्पूर्ण," "समाप्त" वा संस्कृत "समाप्तम्") लिखा जाता है। "इत्यादि" शब्द में "इति" और "आदि" का संयोग है। "इति" कभी कभी संज्ञा के समान आता है और उसके साथ बहुधा "श्री" जोड़ देते हैं, जैसे, "इस काम की इतिश्री हो गई।" राम-चरितमानस में एक जगह "इति" का प्रयोग संस्कृत की चाल पर स्वरूपवाचक समुच्चयबोधक के समान हुआ है, जैसे, "सोहमस्मि इति वृत्त अखंडा।"

२२८—अब कुछ संयुक्त और द्विरुक्त क्रियाविशेषणो के अर्थों और प्रयोगों के विषय में लिखा जाता है।

कभी कभी—बीच बीच में—कुछ कुछ दिनों में, जैसे, "कभी कभी इस दुखिया की भी सुध निज मन मे लाना"। (सर॰)।

कब कब—इनके प्रयोग से "बहुत कम" की ध्वनि पाई जाती है, जैसे, "आप मेरे यहाँ कब कब आते हैं?"

जब जब—तब तब—जिस जिस समय—उस उस समय।

जब तब—एक न एक दिन, जैसे, 'जब तब वीर विनास। (सत॰)।

अब तब—इनका प्रयोग बहुधा संज्ञा वा विशेषण के समान होता है। जैसे अब तब करना=टालना। अब तब होना=मरनहार होना।

कभी भी—इनसे 'कभी' की अपेक्षा अधिक निश्चय पाया जाता है। जैसे, यह काम आप कभी भी कर सकते हैं।

कभी न कभी, कभी तो, कभी भी, प्रायः पर्यायवाचक हैं।

जैसे जैसे—तैसे तैसे, ज्यों ज्यों—त्यों त्यों— ये उत्तरोत्तर