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२४३—समुच्चय-बोधक अव्ययों के मुख्य दो भेद हैं—(१) समानाधिकरण (२) व्यधिकरण।

२४४—जिन अव्ययों के द्वारा मुख्य वाक्य जोड़े जाते हैं उन्हें समानाधिकरण समुच्चय-बोधक कहते हैं। इनके चार उप-भेद हैं:— (अ) सयोजक—और, व, तथा, एवं, भी। इनके द्वारा दो वा अधिक मुख्य वाक्यों का संग्रह होता है; जैसे, 'बिल्ली के पंजे होते हैं और उनमें नख होते हैं"।

—यह उर्दू शब्द "और" का पर्यायवाचक है। इसका प्रयोग बहुधा शिष्ट लेखक नहीं करते, क्योकि वाक्यों के बीच में इसका उच्चारण कठिनाई से होता है। उर्दू-प्रेमी राजा साहब ने भी इसका प्रयोग नहीं किया है। इस "व" में और सस्कृत "वा" में जिसका अर्थ "व" का उलटा है, बहुधा गडबड़ और भ्रम भी हो जाता है। अधिकाश में इसका प्रयोग कुछ उर्दू सामासिक शब्दो में होता है, परंतु उनमे भी यह उच्चारण की सुगमता के लिये संधि के अनुसार पूर्व शब्द में मिला दिया जाता है, जैसे, नामो-निशान, आबो-हवा, जानो-माल। इस प्रकार के शब्दों को भी लेखक, हिंदी-समास के अनुसार, बहुधा "आब-हवा", "जान-माल", "नाम-निशान", इत्यादि बोलते और लिखते हैं, जैसे, "बुतपरस्ती (मुर्तिपूजा) का नाम-निशान न बाकी रहने दिया"। (इति०)।

तथा—यह सस्कृत संबंधवाचक क्रिया-विशेषण "यथा" (जैसे) को नित्य-सबंधी है और इसका अर्थ "वैसे" है। इस अर्थ में इसका प्रयोग कभी कभी कविता में होती है, जैसे, "रह गई अति विस्मित सी तथा। चकित चंचल चारु मृगी यथा"। गद्य में इसका प्रयोग बहुधा "और" के अर्थ में होता है, जैसे, "पहले पहल वहाँ भी अनेक क्रूर तथा भयानक उपचार किये जाते थे"। (सर०) इसका अधिकतर प्रयोग "और" शब्द की द्विरुक्ति का निवारण करने