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इनमें से 'कि' को छोड़कर शेष शब्द, सबंधवाचक और नित्य- संबंधी सर्वनामों के समान, जोड़े से आते हैं। इन शब्दों के द्वारा जुड़नेवाले वाक्यों में से एक में "जे", "यदि", "यद्यपि" या "चाहे" आता है और दूसरे वाक्य मे क्रमशः "तो", "तथापि" (तोभी) अथवा "परंतु" आता है। जिस वाक्य में "जो", "यदि" "यद्यपि" या "चाहे" का प्रयोग होता है उसे पूर्व वाक्य और दूसरे को उत्तर वाक्य कहते हैं। इन अव्ययो के "संकेत-वाचक" कहने का कारण यह है कि पूर्व वाक्य मे जिस घटना का वर्णन रहता है उससे उत्तर वाक्य की घटना का संकेत पाया जाता है।

जो—तो—जब पूर्व वाक्य में कही हुई शर्त्त पर उत्तर वाक्य की घटना निर्भर होती है तब इन शब्दों का प्रयोग होता है। इसी अर्थ में "यदि-तो" आते हैं। "जे" साधारण भाषा में और 'यदि' शिष्ट अथवा पुस्तकी भाषा में आता है। उदा०—"जो तू अपने मन से सच्ची है तो पति के घर में दासी होकर भी रहना अच्छा है।" (शकु०)। "यदि ईश्वरेच्छा से यह वही ब्राह्मण हो तो बड़ी अच्छी बात है।" (सत्य०)। कभी कभी "जो" से आतंक पाया जाता है, जैसे, जो मैं राम तो कुल सहित कहहि दसनन जाय।" (राम०)। जो हरिश्चंद्र का तेजोभ्रष्ट न किया तो मेरा नाम विश्वामित्र नहीं"। (सत्य०)। अवधारण में "तो" के बदले "तोभी" आता है; जैसे, जो (कुटुंब) होती तौभी मैं न देता। (मुद्रा०)।

कभी कभी कोई बात इतनी स्पष्ट होती है कि उसके साथ किसी शर्त की आवश्यकता नहीं रहती, जैसे "पत्थर पानी में डूब जाता है"। इस वाक्य को बढ़ाकर या लिखना कि "यदि पत्थर का पानी में डालें तो वह डूब जाता है", अनावश्यक है।

"जो" कभी कभी "जब" के अर्थ में आता है, जैसे "जो वह स्नेह ही न रहा तो अब सुधि दिलाये क्या होता है। (शकु०)