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इन अव्ययों के द्वारा जुड़े हुए शब्दों वा वाक्यों में से पहले शब्द वा वाक्य का स्वरूप (स्पष्टीकरण) पिछले शब्द वा वाक्य से जाना जाता है; इसलिए इन अव्ययो को स्वरूपवाचक कहते हैं।

कि—इसके और और अर्थ तथा प्रयोग पहले कहे गये हैं। जब यह अव्यय स्वरूपवाचक होता है तब इससे किसी बात का केवल आरंभ वा प्रस्तावना सूचित होती है; जैसे, "श्रीशुकदेवमुनि बोले कि महाराज, अब आगे कथा सुनिए।" (प्रेम०)। "मेरे मन में आती हैं कि इससे कुछ पूछूँ।" (शकु०)। "बात यह है कि लोगों की रुचि एकसी नही होती।" (रघु०)।

जब आश्रित वाक्य मुख्य वाक्य के पहले आता है तब "कि" का लोप होजाता है, परंतु मुख्य वाक्य मे आश्रित वाक्य की कोई समानाधिकरण शब्द आता है; जैसे, "परमेश्वर एक है, यह धर्म की बात है।" "रबर काहे का बनता है यह बात बहुतेरों को मालूम भी नहीं है।"

[सूं०—इस प्रकार की उलटी रचना का प्रचार हिंदी में बँगला और मराठी की देखादेखी होने लगा है; परंतु वह सार्वत्रिक नहीं है। प्राचीन हिंदी कविता में 'कि' का प्रयोग नहीं पाया जाता। आजकल के गद्य में भी कहीं कहीं इसका लोप कर देते हैं। जैसे, "क्या जाने, किसी के मन में क्या भरा है।"]

जो—यह स्वरूपवाचक "कि" का समानार्थी है, परंतु उसकी अपेक्षा अब व्यवहार में कम आता है। प्रेमसागर में इसका प्रयोग कई जगह हुआ है, जैसे, "यही विचारो जो मथुरा और बृंदावन में अंतर ही क्या है।" "विसने बड़ी भारी चूक की जो तेरी मॉग श्रीकृष्ण को दी।" जिस अर्थ में भारतेंदुजी ने "कि" का प्रयोग किया है उसी अर्थ में द्विवेदीजी बहुधा "जो" लिखते हैं; जैसे, "ऐसा न हो कि कोई आ जाये।" (सत्य०)। "ऐसा न हो जो इंद्र यह समझे।" (रघु०)