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रित होकर वर्तमान हिंदी के "का-के-की" प्रत्यय सिद्ध हुए दिखते हैं।
(ऋ) सर्वनामोँ के रा-रे-री प्रत्यय केरा, केरो आदि प्रत्ययोँ के आद्य "क" का लेप करने से बने हुए समझे जाते हैं। (मारवाड़ी तथा बंगला में ये अथवा इन्हींके समान प्रत्यय संज्ञाओं के संबंध-कारक मे आते हैं।)

इस मत-मतांतर से जान पड़ता है कि हिंदी के संबंध-कारक की विभक्तियोँ की व्युत्पत्ति निश्चित नहीं है। तथापि यह बात प्रायः निश्चित है कि ये विभक्तियाॅ संस्कृत वा प्राकृत की किसी विभक्ति से नही निकली हैं, किंतु किसी तद्धित-प्रत्यय से व्युत्पन्न हुई हैं।

(५) अधिकरण-कारक—इसकी दो विभक्तियाँ हिंदी में प्रचलित है—"में" और "पर"। इनमें से "पर" को अधिकांश वैयाकरण संस्कृत "उपरि" का अपभ्रंश मानकर विभक्तियोँ में नहीं गिनते। "उपरि" का एक और अपभ्रंश "ऊपर" हिंदी में संबंध-सूचक के समान भी प्रचलित है। "विभक्ति-विचार" में मिश्रजी ने "लिये", "निमित्त", आदि के समान "पर" (पै) को भी स्वतंत्र शब्द माना है, पर उसकी व्युत्पत्ति के विषय में कुछ नहीं लिखा। यथार्थ में "पर" शब्द स्वतंत्र ही है, क्योंकि यह संस्कृत वा प्राकृत की किसी विभक्ति वा प्रत्यय से नहीं निकला है। "पर" को अधिकरण-कारक की विभक्ति मानने का कारण यह है कि अधिकरण से जिस आधार का बोध होता है उसके सब भेद अकेले "में" से सूचित नहीं होते, जैसा संस्कृत की सप्तमी विभक्ति से होता है।

"मे" की व्युत्पत्ति के विषय में भी मत-भेद है और इसके मूल रूप का निश्चय नहीं हुआ है। कोई इसे संस्कृत "मध्ये" का और कोई प्राकृत सप्तमी विभक्ति "म्मि" का रूपातर मानते हैं। मिश्रजी लिखते हैं कि यदि "में" संस्कृत "मध्ये" का अपभ्रंश होता