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संभावना, संदेह, आदि) बहुधा क्रिया के रूप ही से सूचित होता है। इस दृष्टि से संयुक्त क्रियाएँ इकहरी क्रिया के उस रूपातर से भी भिन्न हैं। जिसे "अर्थ" कहते हैं।

किसी-किसी का मत है कि जिन दुहरी (वा तिहरी) क्रियाओं के हिंदी में संयुक्त क्रियाएँ मानते हैं वे यथार्थ में संयुक्त क्रियाएँ नहीं है, किंतु क्रियावाक्याश हैं, और उनमें शब्दों का परस्पर व्याकरणीय सवंध पाया जाता है, जैसे, "जाने लगा" वाक्याश में "जाने" क्रियार्थक संज्ञा अधिकरण-कारक में है और वह "लगा" क्रिया से "आधार" को संबध रखती हैं। इस युक्ति में बहुत-कुछ बल है, परंतु जब हम "जाने में लगा" और "जाने लगा" के अर्थ को देखते हैं तब जान पड़ता है कि देने के अर्थों में बहुत अंतर है। एक से अपूर्णता और दूसरे से आरंभ सूचित होता है। इसी प्रकार "सो जाना" और "सेकर जाना" में भी अर्थ का बहुत अंतर है। इसके सिवा "स्वीकार करना", "बिदा करना", "दान करना", "स्मरण होना" आदि ऐसी संयुक्त क्रियाएँ है जिनके अगों के साथ दूसरे शब्दों का संबध बताना कठिन है, जैसे, "मै आपकी बात स्वीकार करता हूँ। इस वाक्य में "स्वीकार" शब्द भाववाचक संज्ञा है। यदि हम इसे "करना" का कर्म माने तो "बात" शब्द के किस कारक में मानेंगे? और यदि 'बात' शब्द के संबध कारक में माने ते "मैंने आपकी बात स्वीकार की", इस वाक्य में क्रिया का प्रयोग कर्म के अनुसार न मानकर "बात का" संबध कारक के अनुसार मानना पड़ेगा जो यथार्थ में नहीं है। इससे संयुक्त क्रियाओं के अलग मानना ही उचित जान पड़ता है। जो लोग इन्हें केवल वाक्य-विन्यास का विषय मानते है वे भी ते एक प्रकार से इनके विवेचन की आवश्यकता स्वीकार करते है। रही स्थान की बात, सो उसके लिये इससे बढ़कर कोई कारण नहीं है कि काल-रचना की कुछ विशेषताओं के कारण संयुक्त क्रियाओं का विवेचन क्रिया के रूपातर ही के साथ करना चाहिए। कोई-कोई लोग संयुक्त क्रियाओं को समास मानते है , परतु सामासिक शब्दों के विरुद्ध संयुक्त क्रियाओं के अगो के बीच में दूसरे शब्द भी आ जाते हैं, जैसे, "कहीं कोई आ न जाय", इत्यादि।

४०२—रूप के अनुसार संयुक्त क्रियाएँ आठ प्रकार की होती हैं—