४११—पूर्वकालिक कृदंत के योग से तीन प्रकार की संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं—(१) अवधारणबोधक, (२) शक्तिबोधक, (३) पूर्णताबोधक।
४१२—अवधारण-बोधक क्रिया से मुख्य क्रिया के अर्थ में अधिक निश्चय पाया जाता है। नीचे लिखी सहायक क्रियाएँ इस अर्थ में आती हैं। इन क्रिया का ठीक-ठाक उपयोग सर्वथा व्यवहार के अनुसार है; तथापि इनके प्रयेाग के कुछ नियम यहाँ दिये जाते हैं—
उठना—इस क्रिया से अचानकता का बोध होता है। इसका उपयोग बहुधा स्थितिदर्शक क्रियाओं के साथ होता है; जैसे, बोल उठना, चिल्ला उठना, रो उठना, कॉप उठना, चौंक उठना, इत्यादि।
बैठना—यह क्रिया बहुधा धृष्टता के अर्थ में आती है। इसका प्रयेाग कुछ विशेष क्रिया ही के साथ होता है; जैसे, मार बैठनी, कह बैठना, चढ़ बैठना, खो बैठना। "उठना" के साथ "बैठना" का अर्थ वहुधा अचानकता-बोधक होता है; जैसे, वह उठ बैठा।
आना—कई स्थानों में इस क्रिया का स्वतंत्र अर्थ पाया जाता है, जैसे, देख अओ = देखकर आओ, लौट आओ = लौटकर आओ। दूसरे स्थानों में इससे यह सूचित होता है कि क्रिया का व्यापार वक्ता की ओर होता है; जैसे, बादल घिर आये, आज यह चोर यम के घर से बच आया, इत्यादि। "वातहिवात कर्प बढ़ि आई।"(राम॰)।