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[सू॰—इन सब प्रकार के उदाहरणों में विभक्तियों के संबंध से मतभेद होने की संभावना है, पर वह विशेष महत्व का नहीं है। जब तक इस विषय में संदेह नहीं है कि ऊपर के सब उदाहरण तत्पुरुष के हैं तब तक यह बात अप्रधान है कि कोई एक तत्पुरुष इस कारक का है या उस कारक का। “वचन-चातुरी" शब्द अधिकरण-तत्पुरुष का उदाहरण है, परंतु यदि कोई इसका विग्रह "वचन की चातुरी" करके इसे संबंध-तत्पुरुष माने, तो इस (हिंदी के) विग्रह के अनुसार उस शब्द को संबंध-तत्पुरुष मानना अशुद्ध नहीं है। कोई एक तत्पुरुष समास किस कारक का है, इस बात का निर्णय उस समास के योग्य विग्रह पर अवलंबित है।]

४५८—जिस व्यधिकरण तत्पुरुष समास में पहले पद की विभक्ति का लोप नहीं होता उसे अलक् समास कहते हैं, जैसे, मनसिज, युधिष्ठिर, खेचर, वाचस्पति, कर्त्तरिप्रयोग, आत्मनेपद।

हिं॰—ऊटपटाँग (यह शब्द बहुधा बहुव्रीहि में आता है), चूहेमार।

(क)—'दीनानाथ' शब्द व्याकरण की दृष्टि से विचारणीय है। यह शब्द यथार्थ में 'दीननाथ' होना चाहिए, पर "दीन" शब्द के "न" को दीर्घ बोलने (और लिखने) की रूढ़ि चल पड़ी है। इस दीर्घ आ की योजना का यथार्थ कारण विदित नहीं हुआ है, पर संभव है कि दो हृस्व न अक्षरों का उच्चारण एकसाथ करने की कठिनाई से पूर्व न दीर्घ कर दिया गया हो। 'दीनानाथ' समास अवश्य है और उसे संबंध-तत्पुरुष ही मानना ठीक होगा।

४५६—जब तत्पुरुष समास का दूसरा पद ऐसा कृदंत होता है जिसका स्वतंत्र उपयोग नहीं हो सकता, तब उस समास को उपपद समास कहते हैं, जैसे, ग्रंथकार, तटस्थ, जलद, उरग, कृतघ्न, कृतज्ञ, नृप। जलधर, पापहर, जलचर आदि उपपद समास नहीं हैं, क्योकि इनमें जो धर, हर और चर कृदंत हैं उनका प्रयोग अन्यत्र स्वतंत्रतापूर्वक होता है।

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