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चाल चलना है। योद्धा सिंह की बैठक बैठा। पापी कुत्ते की मौत मरेगा। इस कर्म में संज्ञा आती है।

६९२―उद्देश्य के समान पूर्ति और कर्म का भी विस्तार होता है, परन्तु वाक्य-पृथक्करण में उसे अलग बताने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ केवल मुख्य कर्म को बढानेवाले शब्दों की सूची दी जाती है―

(क) विशेषण―मैंने एक घड़ी मोल ली। वह उड़ती हुई चिडिया पहचानता है। तुम बुरी बाते छोड़ दो।

(ख) समानाधिकरण शब्द―आध सेर घी लाओ। मैं अपने मित्र गेापाल का बुलाता हूँ।

(ग) सबंध-कारक―उसने अपना हाथ बढाया। आज का पाठ पढ़ ले। हाकिम ने गाँव के मुखिया को बुलाया।

(घ) वाक्यांश―मैंने नटों का बाँस पर चढना देखा। लोग हरिश्चद्र की बनाई किताबे प्रेम से पढते हैं।

[सू०―उद्देश्य के समान कर्म में भी अनेक गुणवाचक शब्द एक साथ लगाये जा सकते है और ये गुणवाचक शब्द स्वयं अपने गुणवाचक शब्दो के द्वारा बढ़ाये जा सकते हैं।]

६९३―उद्देश्य की संज्ञा के समान, विधेय की क्रिया का भी विस्तार होता है। जिस प्रकार उद्देश्य के विस्तार से उद्देश्य के विषय में अधिक बाते जानी जाती हैं, उसी प्रकार विधेय-विस्तार से विधेय के विषय में अधिक ज्ञान प्राप्त होता हैं। उद्देश्य को विस्तार बहुधा विशेषण के द्वारा होता है; परन्तु विधेय क्रिया-विशेषण अथवा उसके समान उपयोग में आनेवाले शब्दों के द्वारा बढ़ाया जाता है।

६९४―विधेय का विस्तार नीचे लिखे शब्दों से होता है―