पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/२५

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क्षिप्रहस्त क्षीरपाकोदन क्षिप्रहस्त'-वि० [सं०] शीघ्र या तेज काम करनेवाला। ..... २. द्रव या'तरल पदार्थ । ३. जल । पानी। ४. पेड़ों का रस या क्षिप्रहस्त-संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि का एक नाम । २. एक राक्षस दूध । निर्यास । ५. खीर। ६. सरल नामक वृक्ष का गोंद। का नाम। ...... क्षीरकंठ क्षीरकंठक--संज्ञा पुं० [सं०क्षोरफण्ड, क्षोरकष्ठक] दुधमुंहा . क्षिाहोंम-संज्ञा पुं० [सं०] सायंकाल और प्रातःकाल का होम, जो । बच्चा [को०] । संक्षिप्त और जल्दी होता है। . . . क्षीरकंद-संशा पुं० [सं० क्षीरकन्द क्षीरविदारी।। क्षिया संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विनाश । हानि । बर्वादी । २. प्राचार क्षीरकांडक-संज्ञा पुं० [सं० क्षीरकाण्डक] १. थूहर । २. मंदार । का उल्लंघन । अनौचित्य [को०] । .. क्षीरकाकोलिका-संघा सी० [सं०] दे० 'क्षीरकाकोली'1 . क्षीण-मंत्रा पुं० [सं०] [स्त्री० क्षीणा; भाव० संक्षा क्षीणता, क्षण्य क्षीरकांकोली-संवा सी० [सं०] एक प्रकार की काकोली जड़ी जो १. दुबला । पतला। २. सूक्ष्म । ३. क्षयशील । ४. घटा हुआ। हलकी और वीर्यवर्धक होती है और जिसके खाने से स्त्रियों जो कम हो गया हो। जैसे--क्षीणकोप, क्षोरावृत्ति । ५. का दूध बढ़ता है। यह अष्टवर्ग के अंतर्गत है।. . निधन । संकटग्रगत (को०)। ६. सकुमार । नाजुक (को०)। क्षारखजूर--संशा पुं० [सं०] पिंडखजूर। ७. मत । विध्वस्त (को०)। क्षीरघृत-संशा पुं० [सं०] वह मक्खन जो दूध को मथकर निकाला क्षीणकंठ-वि० [सं० क्षीणकग्छ] १. जिसका गला सूख गया हो। गया हो । सुश्रुत के अनुसार यह मलरोधक, मूर्छा दूर करने- सूखे गलेवाला।२ मंद आवाज वाला । उ०-क्षीणकंठ कर वाला और नेत्रों को हितकारी होता है। रहा पुकार, जलघर से बनकर जलधार -वीणा, पूoti क्षीरज'-संसा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. शंख । ३. कमल । ४. क्षीणकाय–वि० [सं०] दुबले पतले शरीरवाला । दुर्वल (को०]. . वही। ५. मोती। मुक्ता (को०)। ६. समुद्रमंयन से उद्भूत क्षीणचंद्र-संज्ञा पुं० [ सं० क्षीणचन्द्र ] वह चंद्रमा जिसमें सात या अमृत या मक्खन (को०) १७. शेषनाग (को०) 16. समुद्री इमसे कम कलाएँ हों । (कृष्ण पक्ष की अष्टमी से शुक्ल पक्ष .: नमक (को०)। की अष्टमी तक का चंद्रमा क्षीणचंद्र' कहलाता है।) :: क्षीरज-वि० [सं०] दूध से उत्पन्न या बना हुमा । क्षीणता-संक्षा स्त्री० [सं०] १. निर्बलता । कमजोरी। २. दुबलापन। क्षोरजा-संघा पुं० [सं०] लक्ष्मी। पतन्नापन । ३ सूक्ष्मता । वीरतु'बी-संवा स्त्री० [सं० क्षोरतुम्बी] कटू । लोकी [को०] । क्षोणपाप वि० [सं०] जिसके पाप नष्ट हो गए हों (को०] । क्षीरतैल-संघा पुं० [सं०] सुधुत के अनुसार एक प्रकार का प्रोप, क्षीणपुण्य-वि० [सं०] जिसके पुण्य समाप्तप्राय हों। जो पुण्य का सिद्धतल। फल भोग चुका हो [को० । ... क्षीर दल-संसा पुं० [सं०] मंदार प्राक क्षीणप्रकृति-वि० [सं०] (राजा)जिसकी प्रकृति प्रति प्रजादरिद्र हो। क्षीरद्रम-संचा पुं० [सं०] अश्वत्थ । जिसकी प्रजा दिन पर दिन दुर्बल और दरिद्र होती जाती हो। क्षीरधात्री-संघा सी० [सं०] दूर्घ पिलानेवाली धाय [को]। क्षीणमध्य-वि० [सं०] पतली कमरवाला [को०। क्षीरधि-संशा पुं० [सं०] १. समुद्र । २.क्षीरसागर । दुग्ध का समुद्र क्षीणवासी-वि० [सं० क्षीणवासिन् ] टूटे फूटें घर में रहनेवाली [को०] । [को०] 1 .. .. क्षीरधन-संद्या श्री [सं०] १. पुराणानुसार एक प्रकार की कल्पित क्षीणविक्रांत-वि० [सं० क्षीणविक्रान्त] शक्ति या पौरुषहीन [को०)। गो, जो धरे ग्रादि को स्थापित करके बनाई और दान की क्षीणवृत्ति-वि० [सं०] गरीव । कंगाल [को०)। . .... जाती है । २. दूध देनेवाली गाय (को०)। क्षीणवीर्य-वि० [सं०] शक्तिहीन। . .. क्षीरनिधि-संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । २.क्षीरसागर (को०] .. क्षीणवृत्ति----वि० [सं०] जीविका के साधनों से रहित । बेरोजगार। क्षीरनीर--संज्ञा पुं० [सं०] १. मालिंगन । गले लगाना। २. मिन बेकार [को०] । जाना । ३. दूध और जल (को०)। ४. दूध की तरह क्षीणसार-वि० [सं०] रसरहित । तत्वहीन । शुक्ल (वृक्षदि)। शीरप-संघा पंसिंग शिशु । बच्चा । बालक [को०] 1 का जल (को०)। क्षीणार्थ-वि० [सं०] स्वल्प धनवाला । धनरहित [को०] । क्षीरपी -संध्या बी० [सं०] मंदार पाक। क्षीन -संघा पुं० [सं० क्षीण] दे० 'क्षीण' । उ-उपजत विनसत क्षीरपलांड-संचा पुं० [सं० क्षीरपलाण्ड] सफेद प्याज। . क्षीन भइ देहा । कलियुग प्राव क्षीन सनेहा:-कबीर सा०, क्षीरपाक-वि० [सं०] दूध में पकाया हया। - " पृ०५१ . क्षीरपाक-संज्ञा पुं० वैद्यक में वह मोषधि जो अठगुने दूध और क्षीब-वि० [सं०] दे० 'क्षीव' . .. जल में प्रौटाकर तैयार की जाय । . क्षीयमाण-वि० [सं०] १...नित्य घटने या कम होनेवाला। २. क्षीरपाकीदन--संवा पुं० [सं० क्षीर+पाक+प्रोदन] दूध में पकाया नाशवान् शील । क्षीर-संशा पुं० सं०] १. पिया .. हुप्रा चावल । खीर । जाउर। उ०-क्षीरपाकोदन अर्थात यो०-क्षीरसारमय ... .. ... दूध में पकाए हुए भात (जिसे खीर कहते हैं का भी है। "हिंदु सभ्यता, पृ०५०। .: . .