पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३२५

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१४०२ "घिरनी विधी संग्रा श्री. [मनु०] १. सांस लेने में बह रुकावट जो रोते घिया-संज्ञा पुं० [हिं० घी ] १. एक प्रकार की बेल जिसके फलों रोते पड़ने लगती है। हिचकी। सुबकी । २. डर के मारे की तरकारी होती है। मुह से स्पष्ट शब्द न निकलना । बोलने में रुकावट जो भय विशेष - इसके पत्ते कुम्हड़े की तरह के गोल गोल और फूल के भारे पड़ती है। सफेद रंग के होते हैं। घिया दो प्रकार का होता है-एक .. महा.- घिग्घी बंधना=(१) रोते रोते साँस का रुक रुककर लंबे फल का और दूसरा गोल फल का, जिसे कद्दू कहते हैं। ..... निकालना और स्पष्ट शब्द मुंह से बाहर न होना । हिचकी इसकी एक जाति कड़ई भी होती है जिसे तितलौकी कहते

बंधना । (२)-डर के मारे मुह से साफ बोली न निकलना।

हैं । घिया बहुत मुलायम होता है तथा गुण में शीतल और घिधियाना-क्रि० अ० [हिं० घिग्वी] १. रो रोकर बिनती रोगी के लिये पथ्य माना जाता है। इसके बीज का तेल करना । कण स्वर से प्रार्थना करना। गिड़गिड़ाना । 30- (कद्दू का तेल) सिर का दर्द दूर करने के लिये लगाया "एक प्राध बार कैसे भी मगर घिघिया पुतिया कर बेदाग निकल जाता है । इसे लौकी या लोया भी कहते हैं। " :"गए। -मान; भा०५५ पृ० १५८ ।। २. चिल्लाना । २. घियातोरी । नेनुआँ । धिपपिच' संशशास्त्री० [अनु० या सं० घृप्ट पिष्ट ] १. स्थान की घियाकश-संज्ञा पुं० [हिं० घिया+फा० कश] चौकी के प्राकार संकीर्णता । जगह की तंगी । सँकरापन । २. थोड़े स्थान में की एक वस्तु जिसमें उभड़ें हुए छेद घिया, कद्दू, पेठे यादि - बहुत से व्यक्तियों या वस्तुत्रों का समूह । ३. किसी काम को बारीक छीलने के लिये बने रहते हैं। कद्दूका । को करने के समय आगा पीछा करना। धियातरोई-संशा मौ० [हिं० घिया+तरोई ] दे॰ 'धियातोरी' । .. घिचपिच-वि. जो साफ न हो । अस्पष्ट । जैसे,—बड़ी घिचपिच घियातोरई-संशा श्री० [हिं० ] "घियातोरी'। लिखावट है, साफ पढ़ी नहीं जाती। घियातोरो-संघा बी• [हिं० घिया+तोरी ] एक प्रकार की बेल विचपिचाना-क्रि० अ०.[हिं० घिचपिच ] इधर उधर करना । जिसके लेवे लवे फलों की तरकारी होती है। मागापीछा करना । हिचकिचाना। विशेप--इसके पत्ते गोल और फूल पीले रंग के होते हैं । फल पिन--का श्री० [सं० घृणा अथवा घृणि ( अप्रिय)] [क्रि लंबाई में 2-१० अनुल और मोटाई में दो ढाई अंगुल होते घिनाना । वि० घिनौना] १. चित्त को वह चिन्नता जो किसो हैं । पूरब में इसे नेनुमाँ कहते हैं। इसके दो भेद होते हैं। चुरी या कुत्सितं वस्तु को देख या सुन कर उत्पन्न होती है । एक साधारण, जिसके फल लंबे और बड़े होते हैं; और दूसरा मचि । नफरत । घृणा ।२. किती गंदी चीज को देव सुन सतपुतिया जो घौद में फलती और छोटे फलोंवाली होती है। कर जी मचलाने की सी अवस्था । जी विगड़ना। धियापत्थरी–शा पुं० [घृतप्रस्तर] एक प्रकार का मुलायम और - क्रि० प्र०-पाना ।—लगना पिघलने वाला पत्थर । उ०—घिया पत्थर ( एस्टीटाइट) - ... मुहा०-विन खाना=घृणा करना। नफरत करना। से मुहरे और मूर्तियां बनाते थे।-हिंदु० सभ्यता, पृ० १६ । -: धिनाना-कि० अ० [हिं० पिन से नानिक धातु ] घृणा करना। घिरत -संवा पुं० [सं० घृत] दे० 'घृत' । उ०—(क) घेरत प्रति

नफरत करना । उ०-ज्ञान गहीरिन सौ रुचि माने नहीरिन घिरत चभोरे। ले खाँड़ सरत वोरे ।-सूर०, १०.१८३ ।

.. तो घनश्याम घिनाने। रसकुसुमाकर (शब्द०)। (ख) साह की बातें सुणे त्यों त्यों उमंग प्रकास। घिरत का घिनावना-वि० [हिं० पिन-पावना ( प्रत्यास्त्री विनावनी] कुंभ सींचे होम ज्याँ उजास ।-रा०६०, पृ० ११६ ।। - जिसे देखकर घिन लगे । धुरिणत । बुरा । गंदा । घिनौना । घिरन-संपा पुं० [हिं० घेरना ] गले से ऍड़ी तक का लंबा चोंगा। ' विनोची-पंथाली.हि.] दे० 'घिडाँची'। उ०-उनके शरीर पर घिरन क्या सिर की टोपी के लिये - घिनौना --वि० [हिं० धिन+ौनापावना (प्रत्य॰)] दे. ही कपड़ा नहीं था। फूलो०, पृ० १। . . :: 'घिनावना' । उ०-जो सुनने में पानंद लाने के स्थान पर घिरनीका क्षी० [हिं० ] दे० 'घरनई। . . अत्यंत विरुद्ध और घिनौने वरंच कभी कभी भयावने भी घिरना-क्रि०अ० [सं० ग्रहण] १. किसी चारों ओर फैली हुई - : प्रतीत होते हैं।--प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० ३६२ । वस्तु के बीच में पड़ना। किसी वस्तु से चारों और व्याप्त . घिनोरी-संञ्चा, स्त्री० [हिं० धिन ] ग्वालिन नाम का कीड़ा। होना । सब ओर से छेका जाना ।ग्रावृत होना । ग्रावेष्टित घनी-संक्षा बी० [हिं०] १. दे० 'घिरनी'। २. दे० 'गिन्नी' । होना । घेरे में आना । जैसे,—वह चारों और शत्रुत्रों से घियां-संशा पुं० [सं० घृत, प्रा. घिय ] दे० 'पी'। घिर गया। २. चारों ओर छाना। चारों ओर इकटठां -घियरा -संज्ञा पुहिघिय-!रा (प्रत्य॰)] दे० 'पी'। होना । जैसे,-घटा घिरना। ' ' उ.-सबनि जल सों अधिक जगति जोति परैबनि होत . विशेप-इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग घटा पीर बादल के .

" : मनी घियरा।-बनानंद, पृ० ४१८ ।

- ही साथ प्राप्त होता है। . ..... । घिया'@-संज्ञा पुं० हि चियः घत । धी। उ०-चाँद सुरुज घिरनाईर्श-संद्या छी• [हिं०] दे० 'घरनई। . .. . "दोक बने अहीरा, घोर दहिया बिया काढ़ा हो।--कवीर घिरनी--संवा पौर [सं०. घूर्णन] १.. गराड़ी। 'चरखी ।।२ सा० सं०, पृ०५०। . ... . .. चक्कर । फेरा। . . . ..