पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३४९

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१४२६ चंद के पहावल .. .. .. पित माना जाता है। जिस दोहे के यादि में जगण पड़े, - उसको चंडालिनी दोहा कहते हैं। जैन, जहाँ विषम वरननि पर, कई जगण जो प्रान 1 बखानना, चंडालिनी, ..बोहा सुख की बान। विशेप--प्रथम और तृतीय चरण के प्रादि के एक ही शब्द में .. जगरण पड़े तो दुपित है। यदि आदि के शब्द में जगण पूरा .: न हो और दूसरे शब्द से अक्षर लेना पड़े, तो उसमें दोष ही है। पर यदि यह भी बचाया जा सके, तो और भी • उत्तम है। चंडावल-संज्ञा पुं० सं० चड+ग्रावलि ] १. सेना के पीछे का . भाग। पीछे रहनेवाले सिपाही। 'हरावल' का उलटा । चंदावल । २. वीर योद्धा । बहादुर सिपाही। ३. सतरी। '... 'पहरेदार । चौकीदार । चंडाह-संशा पुं० [देश॰] गाद की तरह का एक मोटा कपड़ा। चंडि ---संच सौ० [सं० चरिड] २० 'चंडिका' [को०] । चंडिया-संशा पुं० [देश॰] एक प्रकार का देशी लोहा । - चंडिक-वि० [मं चण्डिक ] १. कर्कश स्वरवाला । २. जिसके लिंग के अग्रभाग का चमड़ा कटा हो (फो०)। - चंडिकघंट- पुं० [सं० चरिडकघण्ट] शिव 1 महादेव । E: चंडिका'-संशनी. [सं० चरिउका] १. दुर्गा । २. लड़ाकी . . स्त्री । कर्कशा स्त्री। ३. गायत्री देवी । -चंडिका-वि० सी० लड़ाकी। कर्कशा । चंडिमा-संचा क्षी० [सं० चण्डिमन् ] १. अावेश। उग्रता। .... तीक्ष्णता । क्रोध । २. उष्णता । गर्मी । ताप (को०]1 1. चंडिल-संज्ञा पुं० [सं० चण्डिल] १. रुद्र । २. बथुप्रा का साग। ... ३. हज्जाम । नाई [को० । .. चंडो-संज्ञा स्त्री० [सं० चरडी] १. दुर्गा का वह ल्प जो उन्होंने . महिपासुर के वध के लिये धारण किया था और जिसकी - कया मार्कंडेय पुराण में लिखी है । दुर्गा। २. कशा और आर .अस्त्री । ३. तरह अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिलम दा सगए और एक गुरु होता है। जैसे,न नतु सिगरि नर । आयु तु अल्पा। निसि दिन भजत विलासिनी तल्पा । कुवुध कुजन अप प्रोषन खंडी। मजहु भजह जनपालिनी चंडी। चंडीकुसुम-संज्ञा पुं० [सं० चण्डीकुसुन] लाल कनेर । चंडीपति-संशा पुं० [सं०चएडीपति ] शिव । महादेव । ... चंडीश-संशा पुं० [सं० चण्डीश ] शिव । चंडोश्वर--हा पु० [सं० चर द्वीश्वर] शिव । महादेव क्वि० । - चडीसुर-संज्ञा पुं० [सं० चण्डीश्वर] एक तीर्थ का नाम । - चंडु-संचा पु० [सं० चण्ड] १. चहा । २. एक प्रकार का छोटा बदर चहू-संज्ञा पुं० [सं० चण्ड(= तीक्ष्ण) ? अफीम का किवाम जिसका -... धूयाँ नशे के लिये एक नली के द्वारा पीते हैं। । क्रि० प्र०-पोना। विशेष-चीनी लोग चंद्र बहुत पीते थे। अफगानिस्तान से चंडू बनकर हिंदुस्तान में आता है। वहाँ चंड बनाने के लिये अफीम को तरल करके कई बार ताव दे देकर छानते हैं। चंडूखाना-संज्ञा पुं० [हिं० चंडू+खाना ] वह घर या स्थान जहाँ लोग इकट्ठे होकर चंडू पीते हैं। मुहा०-चंडूखाने की गप=मतवालों की झूठी वकवाद । विल- कुल झूठी बात । चंडवाज--संधा पुं० [हिं० चंड+ फा० बाज (प्रत्य॰)] चंडू पीने- वाला। चंडू पीने का व्यतनी।। चंडूल- पुं० [देश॰] १. खाकी रंग की एक छोटी चिड़िया। विशेष-यह पेड़ों और झाड़ियों में बहुत सुंदर घोंसला बनाती _है और बहुत अच्छा बोलती है। मुहा०-पुराना चंडूल वेडौल, भद्दा या बेवकूफ आदमी।- (वाजारू) चंडेश्वर---संज्ञा पुं० [सं० चण्डेश्वर ] रक्तवर्ण शरीरधारी शिव का एक रूप । चंडोना संशा स्री० [सं० चण्डोत्रा ] दुर्गा की एक शक्ति [को०] । चंडादरा-संचा ली० [सं० चण्डोदरी] एक राक्षसी जिसे रावण ने सीता को समझाने के लिये नियत किया था। चंडोल-संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र+दोल] १. प्रकार की पालकी जो हाथी के हौदे या अंबारी के आकार को होती है और जिसे चार यादमी उठाते हैं। २. मिट्टी का एक खिलौना जिसे चौपड़ा भी कहते हैं। उ०--तीन एक चंडोल में, रैदास शाह कबीर ।-कवीर मं०, पृ० १२१ । चंडोला-संज्ञा पुं० [हिं० चंडोल] पालकी। मियाना । खड़खड़िया। क्रि० प्र०-चढ़ना=किसी कन्या का विवाह के बाद पालकी पर तसुराल जाना। चंडोलो-संशा स्त्री० [सं० चण्डोली ] मेघराग की एक रागिनी। उ०-बीरा धर गज अर केधारा । चंडोली घर नित उजि- यारा।-माघवानल०, पृ० १९४ । चंडोलो'-संज्ञा स्त्री० [हिं० चंडोल का बी.] पालकी। हो चंद... संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र] १. दे० 'चद्र'। २. एक राग। दे. 'चंद्रक' । उ०-रामसरी खुमरी लागी रट घूया माठाचंद धरू । बेलि०, दु० २४६ । ३. हिंदी के एक प्राचीन कवि। विशेष-ये दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् पृथ्वीराज चौहान की सभा में थे। इनका बनाया हुआ पृथ्वीराज रासो बहुत बड़ा काव्य है। ये लाहौर के रहनेवाले थे। चंद-संचा पुं० [सं० चन्द ] १. चद्रमा। २. कपूर [को०] । चंद-वि० [फा०] १. थोड़े से . कुछ। जैसे,अभी उन्हें आए . चंद रोज हुए हैं । २. कई एक । कुछ। जैसे,--- चंद आदमी वहाँ बैठे हैं। यौ...-चंद दर चंद-कुछ न चुछ। उ०- हर काम के बागाज में चंद दर चंद नुक्स नुमायाँ होते हैं ।-श्रीनिवास ०, पृ० - ३२ । चंदरोजाग्रस्थायी । थोड़े दिनों का 1 उ०-- यह झूठी कलई की हुई मनोहर इमारत चंद रोजा नुमाइश के लिये। -प्रेमधन०, भा० २, पृ० १६५ ।