पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४२७

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चलावी चातुरक' -वि० [30] 'चातुर' को०] । चातुमासिक-वि० [सं०] चार महीने में होनेवाला । ( यज्ञ, कर्म = चातुरकर-संचापुं० दे० 'चातुर' [को॰] । - प्रादि)। मारल-सं० [सं०] १:चार पासों का खेल । १.छोटा गोल चातुर्मासी-मंशा श्री० मा पौस मासी। - तक्रिया को . चातुर्मास्य-संज्ञा पुं० [सं०] १. चार महीने में होनेवाला एक वैदिक चातुरता-संवा स्त्री० [सं० चतुरता] दे० 'चतुरता'। वन। चातुरमास-संवा पुं० [सं० चातुर्मास्य] दे० 'बरसात'। 'चातुर्मास्य विशेष कात्यायन श्रौतसूत्र अध्याय 5 में इस यज्ञ का पूरा - 50---नटनागर वच्छलता लिपटी, लखि कै सुधि का नहि विधान लिखा है। सूत्र के अनुसार फाल्गुनी पौर्णमासी से इस 'लावहिंगे ? संखिचातुरमास में प्रातुर ह्व करि, चातुर का नहि यक्षमा प्रारंभ होना चाहिए, पर भाय और पद्धति में लिखा ... प्रादहिगे। - नट०, पृ०७७ है कि इसका प्रारंभ फाल्गुन, चैत्र या वैशाख की पूर्णिमा से हो 'चातुराश्रमिक-वि० [सं०] [वि० सी० चातुराश्रमिको] चार सकता है । इस यज्ञ के चार पर्व हैं-वैश्वदेव, बाधास, - प्रायमों से किसी एक में रहनेवाला कोला। शानमेष और सुनाशीरीय । चातुराश्रमी-वि० [चातुरायमिन् ] [वि० सी० चातुरायमिणी] २.चार महीने का एक पौराणिक द्रत जो वर्पा काल में होता है। - दे. 'चातुराथमिक' [को॰] । विशेप-बराह के मत से अपाढ़ शुक्ल द्वादसी या पूर्णिमा से चातुराश्रम्य-संज्ञा पुं० [-1 ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्व और इसका उद्यापन करना चाहिए। मत्स्य पुराण में इस प्रत के न्यास ये चार आश्रम । अनेक विधान और फल लिखे हैं। जैसे,- गुड़त्याग करने से चातुरिक -संक्ष पुं० [सं०] सारथी । रथवान ।। स्वर मधुर होता है, मद्य मांस त्याग करने से योगसिद्धि होती है, बटलोई में पका भोजन त्यागने से संतान की वृद्धि होती है, चातुरी-मंस मो० [सं०] १. चतुरता । चतुराई । व्यवहारदक्षता । इत्यादि. इत्यादि । यह विष्णु भगवान् का व्रत है, अतः 'नमो. ____२. चालाकी धूर्तता। नारायण' मंत्र के जप का भी विधान है । सनत्कुमार के मत चातुरीक-संका पुं० [सं०] १. कलहंस । हंस। २ कारएड [को०। से इसका प्रारंभ प्रापाड़ शुक्ल एकादशी, पूणिमा या कर्क की चातुर्जात, चातुर्जातक-संज्ञा पुं० [सं०] १. 'भावप्रकाश के अनुनार संक्रांति से होना चाहिए। इन चार महीनों में काठक गृह्यसूत्र चार सुगंध द्रव्य-नागकेसर, इलायची, तेजपात और के मत ने यात्रियों को एक ही स्थान पर जमकर रहना दालचीनी। २. गुजरात के प्राचीन राजाओं के प्रधान चाहिए । इस नियम का पालन बौद्ध भिक्षु (यति) करते हैं। कर्मचारी की उपाधि । प्रशासक ।। चातुर्य-संज्ञा पुं० [सं० चतराई। निपुणता । दक्षता । चातुर्यक, चायिक'-संज्ञा पुं० सं०] वि. स्त्री० चातुथिकी] चौथे चातुर्वण्य-संज्ञा पुं० [सं०] १. चारों वर्ग अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, -, : दिन पानेवाला ज्वर । चौथिया बुखार । वैश्य और शूद्र । २ चारों वर्गों का अनुप्ठेय धर्म । जैसे,- चातुर्यक, चातुथिक-वि० चौथे दिन होनेवाला । ब्राह्मण का धर्म यजन, याजन, दान, अध्यापन, अध्ययन और E चातुदंश-संशश पुं० [सं०] १. राक्षस । २. वह जो चतुर्दशी को प्रतिग्रह क्षत्रिय का धर्म बाहुबल से प्रजापालन इत्यादि। उत्पन्न हो। ... चातुविद्य-वि० [सं०] चारो का ज्ञाता [को०] । चतुदाशक-वि० [सं०] चतुर्दशी की तिथि से विद्या प्रारंभ करने- चातुविद्य --संशा पुं० चारों वेद [को०] । वाला [को०] । चाविध्य वि० [सं०] चार विधि या प्रकार का [को॰] । चातुर्होत्र--संज्ञा पुं० [सं०] [वि० चातुहात्रिय] वह यज्ञ जो चार है चातुर्भद्र, चातुभद्रक-संमा पुं० [सं०] १. चार पदार्थ-अर्थ, धर्म होतानों द्वारा संपन्न हो। काम और मोक्ष । २.वैद्यक के अनुसार ये चार सोपधियाँ- . चालैंगिg-चा पुं० मि० चातक] दे० 'घातक' । उ०-उकंदी नागरमोथा, पीपल ( पिप्पली), प्रतीस और काकड़ासिंगी। सिर हथ्यड़ा, चाहंती रस सुब्ध । केची चढ़ि चातृमि जि , कोई कोई चक्रदत्त के अनुसार इन चार चीजों को लेते हैं- मागि निहालइ मुध्ध ।-डोला०, दू०१६।। जायफल, पुष्करमूल, काकड़ासिंगी और पोपल । मातुनद्रावलह-संक्षा पुं० [सं०] वैद्यक का एक प्रसिद्ध अवलेह जो चातक -संज्ञा पुं० [सं० चातक दे चातक' ! उल-पिया पिया जायफल, पुष्करमल, काकड़ासिंगी और पीपल को एक साथ मातृकप्रिय काहीं । विरहिनि लाग मदन दुख जरहीं।-- .. पीसकर शहद मिलाने से बनता है। चौहद्दी। . . कबीर सा०, पृ० २४६। ' विशेष-यह अवलेह वास, कास, प्रतीसार और ज्वर से उपकारी चातगचातृगाल--संघा पुं० [मं० चातका दे० 'चातक। . होता है और बच्चों को बहुत दिया जाता है। . उ०--(या) मन चित चातृग ज्यू स्टै, पिव पिव लागी चातुर्महाराजिक-संशा पुं० [सं०] १. विष्णु भगवान । २.बुद्ध का । प्यास । दादू दरसन कानन पुरवहु मेरी प्रास. --दादु०, एकनाम। 'पृ० ५५ । (ख) इक अमिमानी बातृगा विभरत जग माहि। चातुर्मास-वि० [सं०] चार महीनों में होनेवाला । चार महीने का। --२० वानी, पृ०६। । डोर