पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४६४

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चिरकारी १५४२

चिरवाई

चिरकारी--वि० सं० विकारिन वि०सी० चिरकारिणी काम चिरना'- प्रि[सं० चोरणे, हिचीरना या अनुकरणात्मक:] - में देर लगानेवाला । दीर्घसूत्री। १. फटना 1 सीध में कटना । जैसे,-कपड़ा चिरना, लकड़ी चिरक लि--संज्ञा पुं० सं०] दीर्घकाल । बहत समय । जैसे-चिरकाल 'चिरना। २. लकीर के रूप में घाव होना । सीधा क्षत होना। से यह प्रथा चली आई है। जैसे, फट्टी मत छुनो, उगली चिर जायगी। .. चिरकीन'--वि० [फा०] मैला । गंदा (लश०)। उ--माया की चिरना-सा पुं० १. चीरने का प्रीजार । २. सोनारों का एक चिरकीन लखो तुम देखि के मूदी नाक !--पलट०, भा०३, औजारं । ३. कुम्हारों का 'बह धारदार लोहा जिससे वे १०१०।२. चिरकनेवाला । नरिया चीरते हैं। ४. कसेरों का एक अौजार जिससे वे चिरवीन--संज्ञा पुं० उर्दू भाषा के एक बीभत्स रस के कवि । थाली के बीच में ठप्पा या गोल लकीर बनाते हैं। चिरकुट-संसा पुं० [सं० चिर-+-फूट (-काटन।)]फटा पुराना कपड़ा। चिरनिद्रा--- संक्षा बी० [सं०] मृत्यु (को०] । .. - चिथड़ा। गूदड़ । उ० काढ़हु कंथा चिरकुट लावा । पहिरहु चिरपरिचित--वि० [सं०] पुराना परिचित । जिससे सदा से जान - पहचान हो। . राते दगल सुहावा । - जायसी (शब्द०)। .. . -- चिरत्रिय-वि० [सं०] काम में देर लगानेवाला । दीर्घसूत्री। चिरप्रवृत्त- वि० सं०] १. बहुत दिनों तक टिकनेवाला । २. दीर्घकाल चिरक्रियता- संश श्री० [सं.] दीर्घसूत्रता। से किसी कार्य में लगा हुया.[को०)।- - चिरगह -संक्षा पुं० [हिं० चीर+गह 12. 'चिरकुट'। उ0--- चिरप्रसूता-संधा बी० [सं०] वह गाय जिसे बच्चा दिए बहुत दिनः ' - चिरगट फारि चटारा ले गयौ तरी तागरी छूटी।--कबीर हो गया हो [को०] 1 .. .. . ग्रं॰, पृ० २७ । चिरपाकी--संज्ञा पं० [सं० चिरपाकिन] कैग । कपित्या . " चिरचना- क्रि. अ. {हिं०] दे० 'चिड़चिड़ाना' । चिरपुष्प- संध- पुं० [सं०] बकुल । मौलसिरी। .. चिरचिटा--संज्ञा पुं॰ [देश॰] १. चिचड़ा । अपामार्ग । २. एक ऊंची चिरवत्ती---वि० [हिं० चिरना बत्ती ] चिथड़ा चिथड़ाः। टुकड़ा घास जो बाजरे के पौधे के आकार की होती है। इसे चौपाएं टुकड़ा. । पुरजा पुरजा। . . . . . . .- खाते हैं। महा०-चिरबत्ती कर डाला=गियड़े हिरड़े कर चिरचिरा'- वि० [हिं० चिड़चिड़ा] दे० 'चिड़चिड़ा। फाड़ कर टुकड़े टुकड़े करना (कागज, काडा प्रादि)। चिरचिरा- संज्ञा पुं० [हिं० चिचड़ा] ३०"चिचड़ा। चिरबिल्व-संधा पुं० [सं०] करंज वृक्ष 1 कंजा" चिचिराहट-संक्षा सौ. [हिं० चिड़चिड़ाना] ६० "चिड़चिड़ाहट'! चिरम----संक्षा ली [ देश ] जा। घुपची । उ०-पाई तरुनिकुच चिरजीवक संज्ञा पुं॰ [सं०] जीवक नाम का वृक्ष । उच्च पद चिरम ठग्यो सबु गाउँ । छुट होरु रहिहै वहै जुहो चिरजीवन-संज्ञा पुं० [सं०].अमर जीवन को । मोलु छबि नाउ'-विहारी र०, दो० २३७ । . 'चिरजीवी'- वि० सं० चिरजीविन्] १. बहुत दिनों तक जीनेवाला। चिरमिटी-संज्ञा स्त्री० [देश॰] गुजा । घुघची। .....दर्घजीवो । २. सब दिन जीवित रहनेवाला । अमर । चिरमी-संसाधी [सं०] दे० 'चिरम' को चिरजीवी संज्ञा पुं० १. विष्णु । २. कौवा । ३. जीवक वृक्ष । ४. चिरमेही-संज्ञा पुं० सं० चिरहिन ] देर तक मूतनेवाला अर्थात् सेमर का पेड़ । ५. मार्कडेय ऋपि । ६. अश्वत्थामा, बलि, गधा कोना .. व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य भोर परशुराम जो चिरला संहाबी देश.1 एक प्रकार की छोटी झाड़ी 1....... चिरजीवी माने गए हैं। विशेष · यह पंजाब, अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान और फारस . चिरत -संशा पुं० [सं० चिरत ] दे० 'चरित'130.-कोट-सत, ___ में होती है । यह महीनों तक विना पत्तियों के. ही रहती है।

. चिरत रघुनाथ कियो।-रघु० रू०, पृ० ५७ 1
इसमें काले रंग के मीठे. फल-लगते हैं, जिनका व्यवहार प्रोषध

चिरताल -विं० [हिं० चिरत--माल (प्रत्य॰)] १. चरित्रवाला। में होता है।

चिट्टबाज । २. नखरेवाज। ३०-सूसकर गाला सहै, चुग विरवल: संडा०सं० चिरबिल्व:: या चिरबल्ली ] एक.पाधा

बड़ो चिरताल -बांकी ग्रंक, भा॰ २, पृ०५६ ' 'जो बंगाल और उड़ीसा से लेकर मदराम और सिंहल तक चिरतिक्त:- संज्ञा पुंए [सं०] चिरायता । .. . ...: होता है। चिरतुपाररेखा-संज्ञा पुं०. [सं०] पर्वत आदि की वह कचाई जहाँ विशेष- यह पौधा छह महीने तक रहता है। इसकी जड़ें,की, सर्वदा बर्फ जमी रहती है। . . . . . . . . छाल से एक प्रकार का सुंदर रंग निकलता है जिससे मछली चिरत्न-वि० [सं०] [वि० श्री. चिरनी पुरातन । पुराना। पट्टन, नेलोर प्रादि स्थानों में कपड़ें रंगे जाते हैं । इन स्थानों चिरत्व-संज्ञा पुं० [सं.] स्थायित्वं ।: चिरजीवन का भाव में इस पौधे की खेती होती है । असाढ़ में इसके बीज बोएं दीर्घत्व। फिर : श्री योगे निश्चयं । निज चिरत्व " से. जाते हैं । इस पौधे को सुग्वुली भी कहते हैं। .. पत्तों।-ग्राम्या, पृ०६८1 चिरवाई-संघा सी० [हिं० चिरवाना] १. चिरवाने का भाव या