पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४९४

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चूर्णक १५७३ चूल्हा चूर्णक---मंशा पुं० सं०] १.सत्त । सतुमा । २.वह गद्य जिममें छोटें चल'---संसा पु० [सं०] [मी० च ला]. १.चोटी। शिखा । २. रीछ. छोटे शब्द हों तया लंवे समासवाले शब्द और कठोर या के बाल ।-(कलंदरों की भापा) ३. सिर के बाल (बंग०)। श्र तिकटु अक्षर न हों। ३. एक प्रकार का वृक्ष । शाल्मली ४. सबसे ऊपर का कमरा (को०)। विशेष। ४ एक प्रकार का शानिधान। ५ गंधद्रव्य का चूल-संज्ञा स्त्री० [देश॰] किसी लकड़ी का वह पतला सिरा जो चूर्ण (को०)। किसी दूसरी लकड़ी के छेद में उसके . साथ जोड़ने के लिये - ठोका जाय। चर्णकार--संज्ञा पुं० [मं०] १.चूर्ण करने वाला। २. आटा वेचने- वाला । ३. एक वर्णसंकर जाति । मुहा०---च लें ढीली होना अधिक परिश्रम के कारण बहुत थकावट होना। विशेष-पराशर के मत से यह नट जाति की स्त्री और डूक चूल---मंडा पं० [देश॰] एक प्रकार का थूहड़। वि० दे० 'चन । जाति के पुरुष से उत्पन्न हुई यो। चूलक—संशा पुं० [मं०] १. हाथी की कनपटी । २. हाथी के कान चूर्णकार-वि० १. चूर्ण करनेवाला । पीसने वाला। २ चूना का मैल । ३. खंभे का ऊपरी भाग। ४. किसी घटनाया। ___ फूकनेवाला [को०] - विषय की परोक्ष से सूचना । चूर्ण कुतल-संज्ञा पुं० [सं० चू गं कुन्तल अरु जुफ । लट । चलका - संन्ना मी० [सं० चणि का] दे० 'च रिणका उल-व्यवहार- चूर्ण खंड-संज्ञा पुं० [सं० च रखएड] कंकड़ । सूत्र की च लका में लिखा है कि पांचवें काल में किसी मनुष्य चूर्णन-~-संचा पुं० [सं०] ना करना [को॰] । की मुक्ति नहीं होगी 1-कबीर मं०, पृ० २४६ । चूरणपारद–संडा पुं० [सं०] शिगरफ। चूलदान-पक्षा पुं० [सं० चुल्लि+माधान] १.बावचिखाना । रसोई- चूर्णमुष्टि-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] मुट्ठी भर गंधद्रव्य का चूर्ण (को०] । घर । पाकशाला ।-(ल श०)। २. बैठने या चीजें ग्रादि रखने ।' चूर्ण योग--संक्षा पुं० [सं०) बहुत से सुगंधित पदार्थों का मिश्रण। के लिये सीढ़ीनुमा बना हुआ स्थान । गेलरी।-(लश०)। . चुर्णशाकांक--संज्ञा पुं॰ [4० च र्ण शाकाका] गौरसुवर्ण नाम का चला-संझा की. [सं०] १. चोटी । शिखा । २. सबसे ऊपर का' . साग जो चित्रकूट में अधिकता से होता है । वि० दे० कमरा । चंद्रशाला [को०] । 'गौरसुवर्ण'। चलिक-संज्ञा पुं० [सं०] लची नामक पक्वान्न । मैदे की पतली चूर्णहार--मंछा पुं० [सं० चू रनहार नाम की बेल । पूरी । लुचई। चूर्ण-संझा श्री० [सं०] १ आर्या छंद का का दसवां भेद जिसमें १८ चूलिका-संहा स्त्री० [सं०] १. च लक। २. नाटक का एक अंग जिसमें : गुरु और २१ लघु होते हैं । २. तौल में ३२ रत्ती मोतियों नेपथ्य से किसी घटना के हो जाने की सूचना दी जाती है। की संख्या के हिसाब से भिन्न भिन्न लड़ियाँ । विशेष-संस्कृत साहित्यके नियमानुसार रंगशाला पर युद्ध यां मृत्यु । चूर्णि-संज्ञा स्त्री० [सं०] १ कीड़ा । कपर्दक । पादि का दृश्य दिखलाना निषिद्ध है; इसलिये उसकी सूचना यौ०-च रिंगदासी- चक्की पीसनेवाली । पिसनहारी। नेपथ्य से हो जाया करती है । संस्कृत के नाटककार भवभूतिकृत २. चूर्णन। चूर्ण करना या बनाना (को०)। ३.एक सौ वीरचरित नाटक में इस प्रकार की एक च लिका है । उसमें कौड़ियों का समूह (को०)। ४. कापिण नामक प्राचीन सिक्का नेपथ्य से कहा जाता है-'राम ने परशुराम पर विजय '. (को०) । ५. पाणिनि कृत अष्टाध्यायो के सूत्रों पर पतंजलि पा ली है। अतः हे विमान पर बैठनेवालो, आपलोग मंगल गीत - मुनिप्रणीत महाभाष्य (को०)। प्रारंभ करें। यौ०-चू रिणकृत्-महाभाष्यकार पतंजलि । ३. मुर्गे की फलंगी (फो०)। ४. हाथी की कनपटी या करमूल । चुरिणका-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सत्त । सतुपा । २. गद्य का एक । (को०)। ५. धनुप का सिरा या ऊपरी भाग (को०)। .. . चूलिकोपनिषद्-संशा स्त्री० [सं० चल्लि] अथर्ववेदीय एक... भेद । ३० 'चूर्णक' । ३. ग्रथ की जानकारी के लिये उसका भाष्य या शब्दार्थ आदि देना। . उपनिषद का नाम । चूली-संशा पुं० [देश] एक प्रकार का वृक्ष । उ०-खेतों का सबसे - चरिणकृत-संशा पुं० [सं०च गिराकृत] महाभाष्यकार पतंजलि मुनि। बड़ा भूभाग जंगलों से अलग है, और वहाँ च ली, बेमी,अधरोट :: चरिणत-वि० [सं०] १. चूर्ण किया हुआ । २. पीता हमा (को०) । के अतिरिक्त दूसरे तरह के वृक्ष नहीं हैं ।-किन्नर०, पृ० ६५।। चूरणी'-संशा स्त्री० [सं०] १.कापपिरण नामक पुराना सिक्का या चल्ला-संवा पं० [सं० चल्लि] अंगीठी की तरह का मिट्टी या लाह.. कौड़ी । २. एक प्राचीन नदी का नाम । पतंजलि प्रणीत प्रादि का बना हुमा पान जिसका आकार प्रायः घोड़े की नाल ' व्याकरण का भाष्य। का साया अर्द्धचंद्राकार होता है और जिसपर नीचे आग चूरी--वि० [सं० च गिन्चूर्ण । मिलाया हुप्रा या चूर्ण से जलाकर, भोजन पकाया जाता है। बनाग हुआ [को०)। यो-दोहरा च ल्हा- वह च ल्हा जिसपर एक साथ दो चीजें, चूति-संशश मी० [सं०] - जाना । गमन करना [को०] । पकाई जा सके। चू -संवा पुं० [हिं० च रमा] दे॰ 'चू रमा'। मुहा०-चूल्हा जनम भोजन बनना । जैसे,—प्राज़ उनके धर ..