पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/५५५

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छायांकर छायावाद छाया है। विशेष - संगीतसार के मत से यह हम्मीर और शुद्ध नट के योग इसमें सा वादी और ग संवादी है और अवरोहण में तीव्र ..से उत्पन्न रागिनी है । इसमें पंचम वादी, ऋषभ संवादी और मध्यम लगता है। संगीतसार के मत से यह संपूर्ण जाति का अबरोहण में तीन मध्यम लगता है । दामोदर के मत से यह राग है और इसका ग्रह तथा प्रश और न्यास धैधत है । . पोड़व है जिसका सरगम है-नि ध म ग सा। यह संध्या के समय एक दंड से पांच दंड तक गाया जाता है। १६. भूत प्रेत का प्रभाव । आसेव । जैसे,--इसपर किसी की इसकी स्वरलिपि इस प्रकार है-घ स स रे ग म प ध स नि ध प म म म रे ध ध प म प म म म मरे ध प स म म रेस छायाकर-संक्षा पं० [सं०] १. छाया करनेवाला। किसी के लिये - रेस स स । - छाता लेकर चलनेवाला । २. एक छंद [को॰] । छापावित- वि० [सं०] छायायुक्त । सायादार । छायोगणित-संखा ० [सं०] गणित की एक क्रिया जिसमें छाया के छायापथ-संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाशगंगा। हाथी की उहर । सहारे ग्रहों की गति, अयनांश का गमनागमन प्रादि निरूपित अाकाश जनेऊ । २. देवपथ । उ०-नील नभोमंडल सा किया जाता है। इसमें एक शंकु के द्वारा विषु वनमंडल स्थिर जलनिधि, पुल था छायापथ सा ठीक । खींच दी गई एक 'करके छायाकर्ण निर्धारित किया जाता है। अमिट सी पानी पर भी प्रभ की लीक-सायेत, पृ०३६० । छायाग्रह - संशा पुं० [सं०] दर्पण । पाइना । ३. आकाश । उ०---छायापथ में नव तुषार का सधन मिलन छायाग्राहिणी-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राक्षसी जिसने फांदते हुए होता जितना ।—कामायनी, पृ०८। - .. हनुमान की छाया पकड़कर उन्हें खींच लिया था। छायापद - संधा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक यंत्र। इसमें बारह छायाग्राहिनी--संक्षा वी० [सं॰छायाग्राहिणी] दे० 'छायाग्राहिणी'। अगुल का शकु होता था जिसकी छाया से काल का ज्ञान उ०या भव पारावार को उलधि पार की जाय। तिय छवि होता था। छायाग्राहिनी ग्रह बीच ही प्राय।---विहारी र०, दो० ४३३। छायापुत्र-संज्ञा पुं० [सं०] शनैश्चर । उ०--छायापुत्र सहोदर छार्क, - छायाचित्र--संज्ञा पुं० [सं० छागा+चित्र ] पालोक चित्र । प्रक्सी छोह न तापर छेलं ।-रधु० रू०, पृ० २५ । तसदीर । फोटो। छायापुरुष-संज्ञा पुं० [सं०] हठयोग के अनुसार मनुष्य की छायारूप . छायातनय-संशा पुं० [सं०] शनैश्चर । प्राकृति जो ग्राकाश की पोर स्थिर दृष्टि से बहुत देर तक छायातप-संज्ञा पुं० [छ'या+आसप] १. छाया और धूप । देखते रहने की साधना करने से दिखाई पड़ती है। 30..और बदलते रहते चलपट छायातप के।-रजत०, विशेष-तत्र में लिखा है कि इस छायारूप प्राकृति के दर्शन से - पृ०१०। । छह महीने के भीतर होनेवाली भविष्य बातों का पता लग '. छायातरु-मंशा j० [सं०] सुरपुन्नाग। छतिवन । २. वह वृक्ष जाता है । यदि पुरुष की प्राकृति पूरी पूरी दिखाई पड़े तो . जिसकी छाया घनी और विस्तृत हो । छायादार वृक्ष । उ०- समझना चाहिए कि छह महीने के भीतर मृत्यु नहीं हो सकती। जीवन के मरु का छायातरु, लहराया, उत्कल जल निझर ।- यदि आकृति मस्तक शून्य दिखाई पड़े तो समझना चाहिए कि - बेला, पृ० ३७ । छह महीने के भीतर अवश्य मृत्यु होगी। यदि चरण न दिखाई छायात्मज संज्ञा पुं० [सं०] छाया का पुत्र । शनैश्चर । पड़े तो भार्या की मृत्यु और यदि हाथ न दिखाई पड़े तो भाई छायात्मा--संशा पुं० [सं० छायात्मन् परछाई। प्रतिबिंब (को०] । की मृत्यु निकट समझनी चाहिए। यदि छायापुरुप की प्राकृति छायादान--संक्षा पुं० [सं०] ग्रहजन्य अरिष्ट के निवारणार्थ एक रक्तवर्ण दिखाई पड़े तो समझना चाहिए कि धन की प्राप्ति प्रकार का दान । होगी। इसी प्रकार की और बहुत सी कल्पनाए हैं। विशेष-छायादान करनेवाला घी या तेल से भरे कांसे के कटोरे छायाभत्-संज्ञा पुं० [सं०[ चंद्रमा [को०) । में अपनी छाया या परछाई देख और उसमें कुछ दक्षिणा छायाम-वि.fit छायामय-वि० [सं०] छायायुक्त । छायादार [को०। डालकर दान करता है । यह दान ग्रहजनित शरीर के अरिष्ट छायामान-संशा पु० [सं०] १. चंद्रमा । २. छाया की माप (को०)। की शांति के निमित्त किया जाता है और इसे कुलीन ब्राह्मण छायामित्र--संक्षा पुं० [सं०] छाता । छतरी । नहीं ग्रहण करते । छागगनगधर-संज्ञा पुं० [सं०] मृगलांछन । चंद्रमा [को०) । छायादेह-संक्षा सी० [सं० बिना शरीर की मूर्ति । काल्पनिक मूर्ति । छायायंत्र--संझा पुं० [सं०] १. वह यंत्र जिससे छाया द्वारा फाल छायाद्रम-संज्ञा पुं० [सं०] ० 'छायाता' (को०)। का ज्ञान हो। सूर्यसिद्धांत में शंकु, धनु, चक्र नादि इसके छायाद्वितीय - वि० [सं०] एकाकी। अकेला । जिसके साथ केवल अनेक प्रकार बतलाए गए हैं। २. धूपधड़ी। - अपनी छाया ही हो। छायालोक-संज्ञा पुं० [सं०] काल्पनिक जगत् । छोयानट-संज्ञा पुं० [सं०] सगीत में एक राग । छायावाद-संघा पुं० [सं० छाया+वाद] अाधुनिक हिंदी की एक . विशेष-यह राग छाया और नट के योग से उत्पन्न है तथा काव्यगत शैली। केदार नट, कल्याण नट आदि नी मटों के अंतर्गत है। विशेष-सन् १६१८ ई० के ग्रासपास दिवेदी युग की काव्यधारा