पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/५७७

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छेवना' १६५५ छलपन छेवना -संवा स्रो० [हिं० छेना] ताड़ी। विरह । उ०--कह्यौ न परत कछु रह्यौ न परत है सहयों न छेवना --क्रि० स० [सं० छेदन] १. काटना। छिन्न करना । परत छिन छेहरा ।-घनानंद, पृ० ३३८ । छिनगाना । २. चिह्नित करना । चिह्न लगाना । छ"1--वि०, संक्षा पुं० [सं० पट ] दे० 'छ' । छेवना --क्रि० स० [क्षेपण ] १. फेंकना । मिलाना । उ०- छ --संज्ञा स्त्री० [सं० क्षय] दे० 'क्षय', 'छय' । उ०—यह कहि अंत भयो प्रारब्ध को पायो निश्चल गेह। आतम परमातम पारथ हरि पुर गए। सुन्यो सकल जादव छै भए।-सूर०, - मिल्यो देह खेत मह छेत्र ।--निश्चल (शब्द०)। २. . ११२८६ । ऊपर डालना। छऊg-वि० [हिं०] छ हों। उ०-सार वेद चारों को जोइ। मुहा०--जी पर छेवना=अपने ऊपर विपत्ति डालना । जी पर छऊ सास्त्र सार पुनि सोइ।-सर०, ७ । २। खेलना । उ०-जो अस कोई जिउ पर छेवा। देवता याइ छकारी-संशा पुं० [हिं० छप, छक्षय । विनाश। उ०-होखे फरहि नित सेवा ।-जायसी (शब्द०)। (ख) भौंर खोजि दुरमति वंश तुम्हारा । ताते होवे विंद छकारा । कबीर , जस पावे केवा। तुम्ह कारन मैं जिय पर छेवा । —जायसी सा०, पृ० २१०। (शब्द०)। छना -क्रि० प्र० [सं०/क्षि>क्षयण; हि० छय+ना< प्रत्य॰)] छेवनी -संद्धा खौ० [हिं० छेना (=काटना)] दे० 'छेनी' । १. छीजना । क्षीण होना । कम होना। २. नष्ट होना । छेवर-मंचा श्री० [हिं० छेवना] १.छाल । बक्कल । २. छिलका । मुहा०—छ जाना =छेद का फट जाना । किसी छेद का फैलकर इतना बढ़ जाना कि उसके आसपास का स्थान फट जाय । . ३.चमड़ा । त्वचा । जैसे, कान ? जाना; अर्थात् कान में किए हुए छेद का इतना - क्रि० प्र०-उधड़ना ।-उधेड़ना। फैल जाना कि लौ फट जाना। छेवरा-संचा पुं० [हिं० छेवर] ३० 'छेवर' । छैया -संशा सी० [हिं०] दे० 'छावें'। उ०—(क) जाति पांति छेवा-संशा पुं० [हिं० छेव] १. छीलने पा काटने का काम । २. वह प्राघात जो छीलने या काटने के लिये किया जाय । चोट । हम तै बड़ नाही, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ । —सूर० १०॥ ... छीलने या काटने का चिह्न। घाव । जखम । ४. प्रत्यंत वेग २४५ । (ख) माई प्राजु तो हिंडोर झूलें छैयां कदम की । से रहने वाला जल ।-(मल्लाह)। गोपी सब ठाढ़ी मानों चित्र सी सदन की।-नंद० ग्रं०, पु०३७८ । छेह - पुं० [हिं० छेव] १. दे० 'छेत्र' । २.खंडन । नाश । छ या@t-संझा पुं० [सं० शावक, हिं० च्वना] बच्चा । वत्स । उ० ब्रह्म भिन्न मिथ्या सब भाख्यो । तिनको भेद हेत कहि (प्यार का शब्द)। उ०-(क) कहत मल्हाइ लाइ उर छिन राख्यो । उपजो यह मोको संदेहा । प्रभु ताको अब कीजे छिन छ गन छबीले छोटे छैया-तुलसी ग्रं०, १० २७७ (ख) छेहा ।--निश्चल (शब्द०)। बिसकर्मा सूतहार, रच्यो काम ह्र सुनार, मनिगन लागे अपार छइ -वि० १. टुकड़े टुकड़े किया हुआ । खंडित। २. न्यू न । कम । काज महर छैया ।-सूर०, पृ० १० । ४१ । 30... पूरा सहजै गुरण करे गुण ना पावै छेह । सायर पोसे छैया -वि० [सं०] १. क्षय होनेवाला । छोजनेवाला । २. नष्ट . सर भरे दामन भीगे मेह ।-कबीर (शब्द०)। करनेवाला । छेह'@ -संथा पु० [संक्षिप J नृत्य का एक भेद । छल@-संज्ञा पुं० [सं० छवि+प्रा० इल्ला (प्रत्य०), प्रा. छबिल्ल, छह-संधा श्री० [सं० क्षार मिट्टी । राख । छार। वि० दे० 'खेह'। छयल्ल, छइल्ल] सुदर और बना ठना आदमी । सुदर वेश- छेह-संवा स्त्री॰ [हिं० छाया या छाँह] दे० 'छाया' । विन्यासयुक्त पुरुष । वह पुरुष जो अपना अंग खूब सजाए हो । छह 9-20 [अप० छेह] छह । उ०-जलहि तत्व सूर्य सवारा। बांका । शौकीन । रंगीला । उ०--छरे छबीले छल सब सूर सुजान नवीन । जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रवीन । - छह मास आनंद विचारा।-कबीर सा०, पृ० ८७६ ! -मानस,१।२६। छ प्रा० छे] अंत । समाप्ति । प्रति। पयंत। यौ०-छल चिकनियाँ । छैल छबीला। किनारा०-(क) साइधरण हल्लण सभिल इ, कमी प्रागरण छैन चिकनियाँ-संज्ञा पुं० [विश०] शौकीन । बना ठना प्रादमी। छह । काजल जल भेला करी, नाखी नाँख भरेह ।-ढोला, उ०-छल चिकनिया उभ घनेरे । कबीर० सा०, पु. ३१ । पाखो खेता पछो जीव सनेही । गिनत गिनत नालछबीला-संवा पुं० [देश॰] [स्त्री० छलछबीली] १. सजाबजा पावे छेही । कबीर सा०, पृ० ५४६ । और युवा पुरुष । रंगीला पुरुष । वाँका। उ.-उत नव नागरि छेहड़ा -वि० [हिं० छेह+5 (प्रत्य॰)] न्यून । कम । दे० राधिका, छैल छबीली सोय । फाग रंग रस रंग मैं, तामस 'छेह'। उ०--सौदा सतगुरु सू' दिया राम नाम धन काज । और न कोय।--बज० ग्रं॰, पृ० २३ । २. । छरीना नाम लाभ न कोई छेहड़ो तोटा सबही भाज ।-राम० धर्म, का पौधा। छैलपन-संज्ञा पु० [हिं० छल--पन (प्रत्य॰)] बाँकापन । सजीला- पृ०५८.। छहरा-संघा सी[सं० छाया] छाया । साया । पन । उ०--हमें प्रवला थिक अलप गेमान । तोहर छलपन छहरा-संथा पुं० [सं० छाया अलगाव । व्यवधान । विच्छेद । निदत पान --विद्यापति. पृ०२८४ ।