पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/८५

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खितान खिरनी खिताब-संक्षा पुं० [अ० खिताब].१. पदवी । उपाधि खिफ्फत-संघा सी० [अ० खिपत]१. न्यूनता । कमी। २.लाज ।

क्रि० प्र०- देना।-पाना ।----मिलना। ...

धार्म । संकोच । ३. पछतावा र पश्चात्ताप [को० . २. मुखातिब होना । किसी की ओर मुंह करके उससे बातचीत खियानत-संधा सी० [हिं०] दे० 'क्यानत' । करना (को०)। खियाना"-कि०म० [सं० राय या हिं० खाना] गढ़ से या काम खितावी-वि० [अ० खिताबी ] खिताब पाया हुआ। जिसे पदवी में नाते पाते कम हो जाना । घिस जाना । 30-घास भूसा मिली हो। .. .. कह ध्यान लगावहि दाँत खियःने चरते ।-सं० दरिया, खित्ता-संथा पुं० [अ० खित्तह ] प्रांत । देश । इलाका। ... पृ० १३५ । खिदमत-संज्ञा खी० [अ० खिद् मत ] सेवा । टहल । सुश्रू पा । खियाना--क्रि० स० [हिं० खाना] भोजन कराना । खिनाना । खिदमतगार-संज्ञा पुं० [फा० खिदमतगार ] खिदमत करनेवाला। उ०-भोग शुगुति वह भौति उपाई । सहि खियावइ आयु सेवक । टहलुवा। न खाई।-जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ११३ 1 खिदमतगारी-संवा बी० [फा० खिदमतगारी] सेवा । टहल। खियावाँ - संशा पुं० [फा० विवाj.1. उद्यान । बाग । २. फॅच : खिदमती--वि० [अ० खिद्मती] १. खिदमत करनेवाला । जो खूब पत्ती लगाने की क्यारी । सेवा करे। २. सेवा संबधी, अथवा जो सेवा के बदले में प्राप्त खियार-संसा पुं० [अ० खिवार] एक प्रसिद्ध फल । खीरा [को०]i हुमा हो। जैसे-खिदमती माफी, खिदमती जागीर । खियाल-संमा [हिं०] २ 'खान'। खिदर@-संशा पुं० [सं० खबिर[ दे० 'बदिर'। उ०.-कुतक खिदर खिर संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] जोलाहों की ढरकी जिसमें वाने का सूत्र : . धव काठरा, विदर प जावरण वेस !. बाँकी , भा०:२, रहता है और जो बुनते समय एफोर से दूसरी ओर चलाई। पृ०६६। जाती है। इसे 'नार' भी कहते हैं। खिदिर-संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । हिमांशू । २. तपस्वी । तपसी। खिरका-संशा पुं० [हिं०] गाय भैस प्रादि रखने का बाड़ा । ३.दीन । ४. इंद्र (को०] । .. .गोशाला । उ०-मंदिर ते चे यह मंदिर हैं द्वारिका के खिद्यमान-वि० [सं०] [वि॰ स्त्री० खिद्य माना] खेदयुक्त । दुःखित।। ब्रज़ के विरक मेरे हिय खरकत हैं।- रसखान०, पृ० २७ । 30--प्राते ही वे निपतित हुई छिन्नमूला लता सी पावों के खिरका-संथ पु० [५० विरकह गुदड़ी। कथा (को०)। . . संनिस्ट पति के हो महा खिद्यमाना। प्रिय०, पृ.७३। खिरकी@+-संग्रा ली० [हिं०] दे० 'खिड़की' । ३०-सेज ते बाल उठी खिद्र--संधा० [सं०] १. व्याधि । रोग । २: दरिद्रता। हए हरए, पट खोन दिए खिरकी के।--मति० ग्रं, खिन @-संज्ञा पुं० [सं० खण क्षण । लमहा । १०-एक खिन .. . १०३०८ । .. .. - खिन माझ पायें पद साहियो को एक खिन खिन माह होत खिरचा --संघा पुं० [हिं०] दे० 'परफा' । लटपट हैं ।----ठाकुर०, पृ०." ।' . खिरडरी- संभाषी० [हिं० खैर +डली] सुगंधित मसाले मिलाकर मुहा०—बिनखिन-प्रतिक्षण । हरदम । ., वनाई हुई चर की गोली । खिन-वि० [सं० क्षीण, प्रा० क्षीण[ क्षीण । खिन्न । दुर्वल । 10- खिरद-संवा श्री० [फा० विरद] मेधा । बुद्धि । अक्ल । उष्णकाल अरु देह खिन, मगपंथी, तन ऊख । चातक बतिया यो०-खिरदमंद-बुद्धि मान । मेधावी । उ०-ऐ खिर मंदो ना रुची अन जज सींचे रूख । —तुलसी प्र०, पृ० १०८। मुबारक नौ तुम्हें फजीनगी। हम हो पो सहारा हो यो बहान खिनुहु-संघा पुं० [सं०क्षण ] ३० "खिन' । उ०—मेलेसि चंदन मकु . हो यो बीवानगी।-कविता कौ०, मा०४, १०४३ । ... खिनु जागा। पधिको सूत सियर तुन लागा।-जायसी खिरनाल-क्रि०म० [सं०क्षरण] १. नष्ट होना । मिटना ।

ग्र०, पृ० २५२।

. . . उ०-जे भक्खर खिरि जाहिगे घोहि प्रक्खर इन महि.. खिन्त--वि० [सं०] १. उदासीन । चिंतित । २. अप्रसन्न । नाराज! . नाहि ।-कवीर मं०, पृ० -३१० । २. गिरना । चुना। । ३. दीन हीन । मसहाय । उ०-गिरा परय जल वीचि सम, .: बिखरना । झरना। उ०--(क) मेहाँ बूटा अन बहल थल देखिमत भिन्न नभिग्न । बंदी सीताराम पद, जिनहि परम तादा जल रेस । करसण पाका, कण बिरा, उद कर वलण. प्रिय खिन्न । —मानस, '१११८ । .. करेस 1-ढोला०, इं० २६४ । (ख) केहर कुंभ विदारियो । खिपना-क्रि० अ० [सं० खिप्] १.खपना । २. मिल जुल जाना। गज मोती खिरियाह ।-- बौफी० ग्रं, भा० १,५०१८ । . तल्लीन होना । निमग्न होना । उ०-मदन महीपतिमा खिरनी-सहा सौ. [सं० क्षीरिणी] १. एक प्रकार या ऊंचा और ।। 1. समाप सदा दापक बदूनी दिन दीपति से दिपि .छतनार सदाबहार पेड़ जिसके हीर की लकडो लाल रंग की। ., सुजान के परस रस जानि जानु जघत नितंब तीन्यो खेलही में . चिकनी, फड़ी और बहुंत मजबूत होती है और कोहूं बनाने । खिपि रहे । -देव (शब्द०)। ....... तथा इमारत के काम प्राती है। यह बड़ी सरलता से खरादी भी जा सकती है। २. इस वृक्ष का फल जो निमकोड़ी के.. खिपाना@-क्रि० स० [हिं०] दे० 'खाना' उ०-पागे लख दख" माकार का, दूधियों और बहुत मीठा होता है सोर गरमी के फिते भारि हरि असुर खिपाए।-० रायो, पृ० १०५। दिनों में पंकता है। ३. एक प्रकार का चावल । उ०-वरी