पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/१२२

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जीप १७६७ जीभ का सुख और मानद जाता रहना। जीता जागता-जीवित मौर सचेत । भला चगा। जीता लहू-देह से ताजा निकला हना खून । जीती मक्खी निगलना=(१) जान बूझकर कोई मन्याय या अनुचित कर्म करना । सरासर बेईमानी करना । जैसे,—उससे रपया पाकर मैं कैसे इनकार करूं? इस तरह जीती मयखी तो नहीं निगली जाती। (२) जान बूझकर बुराई में फंसना । जान बूझकर धापत्ति या सकट में पहना। जीते जी = (१) जीवित अवस्था में । जिंदगी रहते हुए। उपस्थिति में। बने रहते । माछत । जैसे,—(क) मेरे जीते जी तो कभी ऐसा न होने पाएगा। (ख) उसके जीते जी कोई एक पैसा नहीं पा सकता। (२) जबतक जीवन है । जिंदगी भर । जैसे,--में जीते जी. पापका उपकार नहीं भूल सकता 1 जीते जो मर जाना=जीवन में ही मृत्यु से बढ़कर कष्ट भोगना। किसी भारी विपत्ति या मानसिक भाषात से जीवन भारी होना । जवन का सारा सुख भोर भानंद जाता रहना। जीवन नष्ट होना। जैसे—(क) पोते के मरने से तो हम जीते जी मर गए । (ख) इस चोरी से जीते जी मर गए । जीते जी मर मिटना = (१) बुरी दशा को पहुँचना। (२) प्रत्यत यासक्त होना । 30-मैं तो जीते जी मर मिटा यारो कोई तवीर ऐसी बताओ कि विसाल नसीब हो जाय । -फिमाना०, मा. १, पृ० ११ । जीते रहो- एक पाशीर्वाद जी बडों की पोर से छोटों को दिया जाता है। जब तक जीना तब तक सीना-जिदगी भर किसी काम में लगे रहवा । उ.---पेट के बेट वेगारहि में जब ली जियना तब ली सियना है।-पदमाकर (शब्द॰) । ३. प्रसन्न होना। प्रफुल्लित होना । जीते, उसके नाम से तो __ वह जी उठता है। सयो० क्रि०-उठना । मुहा०-अपनी खुशी जीना=अपने हो सुख से मानदित होना । जोप-सच्चा स्त्री० [4.] एक प्रकार की छोटी मोटर जो कार से पषिक मजबूत होती है तथा उसके चागे पहिए इजन द्वारा संचालित होते हैं। उ०-बहुत जल्द मैं चाहता हूँ जीप का रास्ता निकाल दिया जाय ।-किन्नर०, पृ० १११ जीपण-वि० [हिं० जीपना ] जीतनेवाले। उ०-उदर सुमित्र लक्षण जीपा अरि, घरे शेष अवतार धुरंधर ।-रघु० २०, पृ०६०) जीपना-क्रि० स० [हिं० जीतना ] जीतना । २०-अवसाण पाए छत्री पोरस सरसावै । यह लोक जीप परलोक मोख पावै 1-- रा०६०, पृ० ११४ । जीवनाg+-क्रि० [हिं० जीवना ] जीवित रहना । जीवन धारण करना । 30-मैं गही तेग पति साह सों - परि जाह- जौन जीबी चहै। ह, रासो, पु०८६ । जीबो -मज्ञा पुं० [हि. जीवना] दे० 'जीवन' । 30-साहिन में सरजा समत्य सिवराज, कवि भूपन कहत जीवो तेरोई ___मफल हैं। मूषन प्र०,१० ६३ । जीभ-संक पी० [सं० जिह्वा, प्रा• जिन्म ] १. मुंह के भीतर रहनेवाली लवे चिपटे मासपिर के प्राकार की यह इद्रिय जिससे कद्र, अम्ल, तिक्त इत्यादि रसो का अनुभव और शब्दों का उच्चारण होता है । जवान । जिह्वा । रसना। विशेष-जीम मासपेशियों और स्नायुगों से निर्मित है। पीछे की ओर यह नाल के प्राकार की एक नरम हड्डी से जुड़ी है जिसे जिह्वास्थि कहते हैं। नीचे की मोर यह दाढ़ के मास से सयुक्त है और ऊपर के भाग की अपेक्षा अधिक पतली भिल्ली से ढकी है जिसमे से बरावर लार छूटती रहती है। नीचे के भाग की अपेक्षा ऊपर का भाग अधिक छिद्रयुक्त या कोशमय होता है और उसी पर वे उभार होते हैं जो कोटे कहलाते हैं। ये उभार या काटे कई पाकार के होते हैं, कोई प्रघचद्राकार फोई चिपटे भोर कोई नोक या शिखा के रूप के होते हैं। जिन मांसपेशियों पौर स्नायुधों के द्वारा यह दाढ़ के मांस तथा शरीर के पौर भागों से जुडी है उन्हीं के बल से यह इधर उधर हिल डोल सकती है। स्नायुगों में जो महीन महीन शाखा स्नायु होती हैं उनके द्वारा स्पर्श तथा शीत, उष्ण प्रादि का अनुभव होता है। इस प्रकार के सूक्ष्म स्नायुओं का जाल जिह्वा के मन भाग पर अधिक है इसी से वहाँ स्पर्श या रस आदि का सन- भव अधिक तीव्र होता है। इन स्नायूमो के उत्तेजित होने से ही स्वाद का चोध होता है। इसी से कोई भधिक मीठी या सुस्वादु वस्तु मुह मे लेकर कभी लोग जीभ चटकारते या दवाते हैं। द्रव्यों के सयोग से उत्पन्न एक प्रकार की रासायनिक क्रिया से इन स्नायुमों में उत्तेजना उत्पन्न होती है। १२८ अश गरम जल में एक मिनट तक जीभ दुवोकर यदि उसपर कोई वस्तु रखी जाय तो खट्टे मीठे भादि का कुछ भी ज्ञान नहीं होता । कई घृक्ष ऐसे हैं जिनकी पत्तियां चदा लेने से भी यह ज्ञान थोडी देर के लिये नष्ट हो जाता है। वस्तुओं का कुछ प्रश काटों मे लगकर मौर घुलकर छिद्रों के मार्ग से जब सूक्ष्म म्नायुगों में पहुंचता है तभी स्वाद का बोध होता है। मत यदि कोई वस्तु सूखी, कही है तो उसका स्वाद हमें जल्दी नहीं जान पडेगा। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्राण का रसना के स्वाद से घनिष्ठ सदध है। कोई वस्तु खाते समय हम उसकी गंध का भी अनुभव करते हैं। जिस स्थान पर जीभ लारयुक्त मास मादि से जुडी रहती है वहाँ कई सूत्र या वधन होते हैं जो जीभ की गति नियत या स्थिर रखते हैं। इन्हीं बधनों के कारण जीभ की नोक पीछे की मोर बहुत दूर तक नहीं पहुंच सकती। बहुत से बच्चो को जीभ मे यह बंधन मागे तक बढ़ा रहता है जिससे वे बोल नही सकते । बंधनों को हटा देने से बच्चे बोलने लगते हैं। रसास्वादन के अतिरिक्त मनुष्य की जीभ फा बहा भारी कार्य कठ से निकले हुए स्वर में अनेक प्रकार के भेद डालना है। इन्हीं विभेदों से वणों की उत्पत्ति होती है जिनसे भाषा का विकास होता है। इसी से जीम को वाणी भी कहते हैं। पर्यो०--जिह्वा । रसना । रसमा । रसाल । रसिका। साधुनया। रसला । रसाका । ललना।