पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/१२८

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ओवाजून जीवित । ३ जीवती। ४ बालवच । वचा। ५ भूमि । ६. जीवन । कुछ शून्य मानते हैं । वे कहते है कि यदि कोई वस्तु सत्य होतो ७ जीवनोपाय । जीविका । ८ जीवन (को०)। ६. आभरण तो सब अवस्थाम्रो में बनी रहती । योगाचार शाखा के बाद की खनक या झनक (को०)। मात्मा को क्षणिक विज्ञान स्वरूप मानते है और इस विज्ञान को दो 'प्रकार का कहते है--एक प्रवृत्ति ' विज्ञान जीवाजूना-सचा पुं० [सं० जीवयोनि] जीवजतु । प्राणीमात्र । पशु, पक्षी, कीट, पतंग प्रादि 130-पी फाटी पगरा हुभा जागे जीवाजून । और दूसरा भालय विज्ञान । जाग्रत 'पौर सुप्त मवस्या सब काहू को देत है चोच समाना धून ।-कवीर (मान्द०)। में जो ज्ञान होता है उसे प्रवृत्ति विज्ञान कहते हैं और सपूप्ति अवस्था में जो ज्ञान होता है उसे प्रालय विज्ञान कहते हैं। यह जीवाणु-सधा पुं० [सं० जीव मरगु] भति सूक्ष्म जीव । क्षुद्रतम . ज्ञान प्रात्मा ही को होता है। जैन दर्शन भी ग्रात्मा को चिर, जीव । उ०-ऐसा होता है कि जीवाणु कई पुश्तो तफ बिना विकसित हुए प्रवाहित रहें। -पा० सा०सि०, पृ० ११२ । । स्थायी और प्रत्येक प्राणी मे पुथक् मानता है। उपनिषदो. मे जीवात्मा का स्थान हृदय माना है पर आधुनिक परीक्षामा जीवातु-सय पुं० [सं०] १ खाद्य । पाहार । २. जीवन । से यह वात प्रच्छी तरह प्रगट हो चुकी है कि समस्त चैतन अस्तिख । ३ पुनर्जीवन । ४ जीवनदायक भौषध [को०। __ व्यापारो का स्थान मस्तिष्क है। मस्तिष्क को ब्रह्मांड भी जीवातुमत्-सज्ञा पुं० [सं०] मायुष्काम यज्ञ का एक देवता जिससे कहते हैं । दे० 'मारमा'। भायु की प्रार्थना की जाती है। (पाश्वौत सूत्र) पर्या-पुनर्भवी। जीव । असु-मान ! सत्व । देहभृत् । चेतन । जीवात्मा-सञ्ज्ञा पुं० [जीवास्मन् ] प्राणियों की चेतन वृत्ति का त्ति का जीवादान-सा पुं० [सं०] वेहोशी । मूर्यो । सज्ञाशून्यता [को०)। हो कारणस्वरूप पदार्थ । जीव । मात्मा। प्रत्यगारमा। जीवाधार-सश० [सं०] मात्मा का माश्रयस्थान । हृदय । - विशेष-अनेक धार्मिक और दार्शनिक मतो के अनुसार शरीर विशेष--उपनिषदो में जीव का स्थान हृदय माना गया है। से भिन्न एक जीवात्मा है। इसके अनेक प्रमाण शास्त्रों मे। जीवाना-कि०म० दे० 'जिलाना'। उ०-तातें या वैष्णव को मरत दिए गए हैं। साख्य दर्शन मे भात्मा को 'पुरुष' कहा है जीवायो।-दो सौ वावन०, भा०१, पू० ३२३ । ' पौर से नित्य, त्रिगुरणशून्य, चेतन स्वरूप, साक्षी, कूटस्थ, द्रष्टा, विवेकी, सुख-दुख-शून्य, मध्यस्थ और उदासीन माना जीवानुज-सझा ० [सं०] गर्माचार्य मुनि, जो वृहस्पति के वश में है। प्रास्मा या पुरुष अकर्ता है, कोई कार्य नहीं करता, हुए हैं। किसी के मत से ये बृहस्पति के छोटे भाई भी कह सब कार्य प्रकृति करती है। प्रकृति के कार्य को हम अपना-. जाते हैं। उ०-भाषत हम जीवानुज बानी। जा मह होर (मात्मा का ) कार्य समझते हैं। यह ग्रम है। न भात्मा सकल दुख हानी। -गोपाल (शब्द॰) । कुछ कार्य करता है, न सुख दुखादि फल भोगता है। सुख जीवास्तिकाय-सपा पुं० [सं०] जैन दर्शन के अनुसार फर्म का दुःख पादि भोग करना बुद्धि का धर्म है। पात्मा न बद्ध फरनेवाला, काके फल को भोगनेवाला, किए हुए कर्म के होता है, न मुक्त होता है। कठोपनिषद् में प्रारमा का परि- अनुसार शुभाशुभ गति में जानेवाला मोर सम्यक् ज्ञानादि के माण मगुष्ठमात्र लिखा है। इसपर साख्य के भाष्यकार वश से फर्म के समूह को नाश करनेवाला जीव । विज्ञानभिक्षु ने बतलाया है कि अगुष्ठमात्र से मभिप्राय . विशेप-यह तीन प्रकार का माना गया है,-मनादिसिद्ध, मुक्त मोर प्रत्यत सूक्ष्म से है। योग और वेदात दर्शन भी मात्मा को बद्ध । मनादिसिद्ध महत हैं जो सब अवस्यामों मे मविद्या भादि सुख दुस्ख प्रादि का भोक्ता नहीं मानते । न्याय, वैशेषिक और के बंधन से मुक्त तथा अणिमादि सिद्धियो से सपन रहते हैं। मीमासा दर्शन मात्मा को कर्मों का कर्ता मोर फलों का भोक्ता जीविका-सहा ली[सं०1१वह वस्तु या व्यापार जिससे जायन मानते हैं। न्याय वैशेषिक मवानुसार जीवात्मा नित्य, प्रति का निर्वाह हो। भरण पोपणे का साधन । जीवनोपाय । शरीरभिन्न मोर व्यापक है। शाफर वेदात दर्शन में जीवात्मा वृत्ति । उ०-जीविका विहीन लोग सौद्यमान, सोच वस कहें । पौर परमात्मा को एक ही माना गया है,। उपाधियुक्त होने से एक एकन सो कहाँ जाई का करी? -तुलसो ० पू०, २२११: ही जीवात्मा अपने को पृथक् समझता है, पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने क्रि०प्र०—करना । .. " पर यह भ्रम मिट जाता है और जीवात्मा ब्रह्मस्वरूप हो जाता यौ०-जोविकाजन = जीवन निर्वाह के साधन का संग्रह । उ.--उसे है। साख्य, वेदात योग श्रादि सभी जीवात्मा को नित्य मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अनुसार जैसे सब पदार्थ क्षणिक हैं उसी... अपने जीविकार्जन की एक मशीन बना रहा है। -स० दर्शन प्रकार भात्मा भी। जीवात्मा एक क्षण मे उत्पन्न होता है और.. पृ. ८८1 दूसरे क्षण में नष्ट हो जाता है। प्रत क्षणिक ज्ञान का नाम मुहा०---जीविका लगना = भरण पोपण का उपाय होना । रोजी का ही पात्मा है। जिसकी धारा चलती रहती है भौर एक क्षण.. । ठिकाना होना। जीविका लगाना भरण पोषण का उपाय करना । को ज्ञान या विज्ञान नष्ट होता है और दूसरा क्षणिक विज्ञान - जीवन निर्वाह का उपाय करना। रोजी का ठिकाना करना। उत्पन्न होता है। इसे पूर्ववर्ती विज्ञानों के संस्कार भोर ज्ञान २ जीवनदायी तत्व मर्यात जल (को०)। ३. जीवन (को०)। प्राप्त होते रहते हैं। इस क्षणिक ज्ञान के अतिरिक्त कोई नित्य " जीवित-वि० [सं०] १ जीता हुप्रा। जिदा। सप्राए । ३०-- या स्थिरमात्मा नहीं। माध्यमिक शाखा के बौद्ध तो इस उस समय सत्यगुरु का वेष जीवित साधु के समान था। क्षणिक विज्ञान रूप मारमा को भी नही स्वीकार करते, सब -कवीर मा, पु. ८१। २ जो जीव या प्राण्युक्त हो