पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/१६३

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ज्ञानमुद्रा, १९०४ शानकार मनात यथार्थ ज्ञान और पप्रमा या प्रयथार्थ ज्ञान । वेदांत में विशेष-ज्ञानकृत पापों का प्रायश्चित्त दुना लिखा गया है। ब्रह्म को ही ज्ञानस्वरूप माना है मत उसके अनुसार प्रत्येक झानगम्य-मया पुं० [सं०] ज्ञान की पहुंच के भीतर । जो जाना का ज्ञान पृषक नहीं हो सकता । एक वस्तु से दूसरी वस्तु में जा सके। या एक के ज्ञान से दूसरे के ज्ञान में जो विमिमता दिखाई देती ज्ञानगर्भ-वि० [सं०] ज्ञान से पूर्ण या मरा हुमा [को० । है, वह विषय रूप उपाधि के कारण है। वास्तविक ज्ञान एक ही है जिसके अनुसार सब विभिन्न दिखाई पडनेवाले पदार्थों ज्ञानगोचर-वि० [सं०] ज्ञानेंद्रियो से पानने योग्य । ज्ञानगम्य । के बीच में केवल एक चित् स्वरूप सत्ता या ब्रह्म का ही योष सानधन-सबा पुं० [१०] शुद्ध ज्ञान । केवल शान मो० । होता है। ज्ञानचक्षु-सक्षा पु० [सं० ज्ञानचक्षुस] ज्ञान के नेत्र । मंवटि [को॰] । पाश्चात्य दर्शन में भी विषयों के साथ इद्रियों के संयोग रूप झानचक्ष-विज्ञान की मार से देखनेवाला पिडित [को०) । ज्ञान को ही ज्ञान का मूल पषवा प्रथम रूप माना है । किसी ज्ञानज्येष्ठ-वि० [सं०] वो ज्ञान में बढ़कर हो [को०] । एक.वस्तु के ज्ञान के लिये मी यह भावना मावश्यक है कि वह ज्ञानत:-कि० वि० सं० ज्ञानवस ] जान दूझकर । जानकारी में। मा कुछ वस्तुओं के समान पौर कुछ वस्तुओं से भिन्न है अर्थात समझदूझकर। बिना साधम्यं भोर वैधम्यं की भावना के किसी प्रकार का ज्ञानतत्व-सभा पुं० [सं० ज्ञानतत्त्व ] यथार्थ ज्ञान [को०] शान होना असंभव है। इस साक्षात्करण रूप ज्ञान से भागे बसकर सिद्धात पान के लिये सयोग, सहकालत्व धादि ज्ञानतपा-वि० [सं० ज्ञानतपस् ] शुद्ध ज्ञान के लिये तप करने- की भावना भी मावश्यक है। जैसे,--'वह पेड़ नदी के फिनारे वाला [को०] 1 है इस धान का ज्ञान केवल पेड़' 'नदी' और किनारा का झानद--सवा पुं० [सं०] ज्ञान देनेवाला । गुरु [को०] । साक्षात्कार मात्र नहीं है बल्कि इन तीन पृथक् भावों का ज्ञानदग्धदेह-सचा पुं० [सं०] वह जो चतुर्थ प्राधम में हो । सन्यासी। समाहार है। विशेष-स्मृतियों में लिखा है कि सन्यासी जीवित भवस्या हो में प्राणिविज्ञान के अनुसार खोपडी के भीतर जो मज्जा-तु देह अर्थात् सुख दुस मादि को ज्ञान द्वारा दग्ध कर गलता है जाल (नाडिया) मोर कोच हैं, चेतन व्यापार उन्हीं की क्रिया मत मृत्यु हो जाने पर उसके दाह फर्म की भावश्यकता नहीं। से सबंध रखते हैं। इनमे क्रिया को ग्रहण करने पर उत्पन्न उसके शरीर को एक गड्ढा खोदकर प्रणव मत्र के उच्चारण करने-दोनो की शक्ति है। इद्रियो के साथ विषयों के संयोग के साथ गाड देना चाहिए। द्वारा संचालन नाड़ियो के द्वारा भीतर की पोर जाता है और ज्ञानदासधा स्त्री० [सं०] सरस्वती । [को०] । कोशों को प्रोत्साहित फरके परमाणुमो मे उत्तेजना उत्पन्न ज्ञानदाता-सक्षा पुं० [सं० शानदातृ ] ज्ञान देनेवाला मनुष्य । गुरु । करता है। मृतवादियों के अनुसार इन्हीं नाड़ियो भोर कोशों की क्रिया का नाम चेतना है, पर पधिकाश सोग चेतना को शानदात्री-सका खा० [सं०] ज्ञान देनेवाली देवी। सरस्वती को। एक स्वतंत्र शक्ति मानते हैं। ज्ञानदबल-वि० [सं० ] ज्ञान में दुर्बल या मसमर्थ [को०। क्रि० प्र०होना। ज्ञानधन-वि० [सं०] ज्ञानी। तत्वविद् । उ०--मिया समाहित मुहा०-ज्ञान छीटना-अपनी विद्या या जाचकारी प्रकट करने के चित्त ज्ञानधन तुम्हें जानकर।-मपरा, पु० १९३ ॥ लिये लवी चौही बातें करता। ज्ञानघाम-वि० [सं० ज्ञानधामन् ] परम ज्ञानी । उ०-खोजे सो २ यपा ज्ञान । सम्यक ज्ञान । तत्वज्ञान । यात्मज्ञान । प्रमा। कि प्रज्ञ इन नारी । शानघाम श्रीपति प्रसुरारी।--मानस, कंवलज्ञान। विशेष-मीमासा को छोडकर प्राय सब दर्शनो ने ज्ञान से मोक्ष ज्ञाननिष्ट-वि० [सं०] १. थवण, मनन, निदिध्यासन, मावि ज्ञान माना है। न्याय में ज्ञान द्वारा मिय्पा ज्ञान का नाथ, मिथ्या साधनोंवाला। २ वरवज्ञानी [को०)। शान के दाश से दोप का नाण, दोष न रहने पर प्रवृत्ति से ज्ञानपिपासा-सा बी० [सं०] ज्ञान प्राप्त करने की प्रवल इच्छा। निवृत्ति, प्रवृत्ति के नारा से, जन्म से निवृत्ति पोर जन्म की ज्ञान की प्यास [को०] । निवृत्ति से दुख का नाथ, दुख नाथ से मोक्ष माना जाता ज्ञानपिपास-वि० [सं०] ज्ञानप्राप्ति की इच्छावाला । जिज्ञासु [को० । है। सांस्य ने पुस्प मोर प्रकृति के बीच विवेक ज्ञान प्राप्त होने से पद प्रकृति हट जाती है तब मोक्ष का ज्ञान होना बतलाया ज्ञानप्रम-समा पुं० [सं०] एक तपागत का नाम । है। वेदात का मोक्ष ऊपर लिसा पा चुका है। ज्ञानमद-बापुं० [सं०] शान का अभिमान । ज्ञानी या जानकार शानकार-सा पुं० [सं० जानकाएड] वैद के तीन फाडौं या होने का धमंह। विभागों में से एक जिसमे ब्रह्म मावि सूक्ष्म विषयों का विचार ज्ञानमुद्र-वि० [सं०] ज्ञानी । ज्ञानवाला [को०] । है। जैसे,-उपनिषद् । ज्ञानमुद्रा-सक्षा सी० [सं०] वप्रसार के भनुसार राम को पूजा की मानात-वि० [सं०] जो पाप जान बूझकर किया गया हो, भूल से एक मुद्रा। नहुमा हो। विशेष- इसमें दाहिने हाथ की तर्जनी को मंगूठे से मिलाकर हाप ।