पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/१६४

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ज्ञानयज्ञ १५१० ज्याघोष में रखते हैं और बाएं हाथ की उंगलियो को कमलसंपुट के पाकार नाक मौर त्वक् हैं। इन पांचो के प्रतिरिक्त कोई कोई छठी की करके उनसे सिर से लेकर बाएँ जधे तक रक्षा करते हैं। इद्रिय मन या अतकरण मानते हैं पर मन केवल ज्ञानेंद्रिय नहीं ज्ञानयज्ञ-सका पुं० [सं०] ज्ञान द्वारा अपनी मात्मा का परमारमा में है कमेंद्रिय भी है अतः उसे दाशनिको ने तभयात्मक माना है । हवन प्रर्थात् मारमा और परमात्मा का प्रयोग या पभेदशान । ज्ञानोदय-सचा पुं० [सं०] ज्ञान का उदय [को०] ! ब्रह्मशान। ज्ञापक-वि० [सं०] १ जतानेवाला । जिससे किसी बात का वोष झानयोग---सका पुं० [सं० ] ज्ञान की प्राप्ति द्वारा मोक्ष का साधन । या पता चले । सूचक । रूपक ( वस्तु)। २ बतानेवाला। --एक ज्ञानयोग विस्तरै । ब्रह्म जानि सचसो हित फरे।- सूचित करनेवाला ( पक्ति )। सूर (शब्द॰) । ज्ञापकर--सा पुं० १. गुरु । प्राचार्य । २ प्रभु । स्वामी (को० । झानलक्षण-सज्ञा सी० [सं०] न्याय मे प्रलौकिक प्रत्यक्ष का ज्ञापन-मा सं०] [विज्ञापित, शाप्य]जताने या बताने का कार्य। एक भेद। विशेष-नैयायिकों ने प्रत्यक्ष के दो भेद माने हैं, लौकिक ज्ञापयिता-२० [९० शापयितु] सूचक । बतानेवाला । ज्ञापक (को। मौर मलौकिक । अलौकिक प्रत्यक्ष के तीन भेद है, सामान्य ज्ञापित-वि० सं० ] जताया हुपा । बताया हुधा । सूचित । लक्षण, ज्ञानलक्षण और योगज । ज्ञानलक्षण वह है जिसमे झाप्य-वि० [सं०] जताने या सूचित करने योग्य (को०)। विशेषण के ज्ञात होने पर विशेष्य का ज्ञान होता है । जैसे, बोप्सा-सया श्री० [सं०] जानने की इच्छा [को०] ! घटत्व का ज्ञान होने पर घट शब्द से घडे का ज्ञान । झय-वि० [सं०] १. जिसका जानना योग्य या कर्तव्य हो । बानने योग्य। २. ज्ञान का निर्देशक, सकेतक साधन या उपाय (को०)। विशेष-ब्रह्मज्ञानी लोग एकमात्र ब्रह्म को ही क्षेय मानते हैं, ज्ञानलक्षणा-सक्षा श्री० [सं०] दे० 'ज्ञानलक्षण' (को०)। जिसको जाने बिना मोक्ष नही हो सकता। ज्ञानवान-वि० [सं०] जिसे ज्ञान हो । ज्ञानी । २ जो जाना जा सके। जिसका जानना संभव हो। ज्ञानवापी-सशा श्री [सं०] काशीस्थित एक प्रसिद्ध तीर्य । ज्याना -कि० स० [हिं० जिमाना, जेवाना ] सिलाना । उ.--- ज्ञानविज्ञान-सज्ञा पुं० [सं०] १ विभिन्न प्रकार का या पवित्र . ज्ञान । २ वेद, उपवेद सहित उसकी शाखापो का ज्ञान (को॰] । सुमग सुस्वाद सुविजन धानि। जननी ज्यीये सपने पानि |---- ज्ञानवृद्ध-वि० [सं०] ज्ञान में बडा । जिसकी जानकारी अधिक हो। नंद० प्र०, पृ० २७८ । झानशास्त्र-सक पुं० [सं०] भविष्य का विचार प्रपदा कथन करने- ज्या-साक्ष स्त्री० [सं०] १. धनुष की डोरी। २ वह रेखा जो किसी चाप के एक सिरे से दूसरे सिरे तक हो। वाला शास्त्र [को०] । झानसाधन-समा पुं० [10] १ इद्रिय । २ ज्ञानप्राप्ति का प्रयत्न । ज्ञानाजन--सबा पुं० [सं० ज्ञानाञ्जन ] तत्वज्ञान 1 ब्रह्मज्ञान [को०) । ज्ञानाकर-सव पुं० [सं०] बुद्ध । ज्ञानापोह-सबा ० [सं०] मुल जाना । ज्ञान न रहना । विस्म- रण [को०] । ३. वह रेखा जो किसी चाप के एक सिरे से उस व्यास पर लर ज्ञानावरण-सचा पु० [सं०] १, ज्ञान का परवा । ज्ञान का बाधक | रूप से गिरी हो जो चाप के दूसरे सिरे से होकर गया हो। २. वह पाप कर्म जिससे ज्ञान का यथार्थ लाभ जीव को नहीं होता है। विशेष-यह पांच प्रकार का है,-(१) मविज्ञानावरण । (२) श्रुतिज्ञानावरण । (३) अवधिज्ञानावरण । (४) मन.पर्याय ज्ञानावरण और (५) नेवलज्ञानावरण । (जैन)। ज्ञानावरणीयकर्म-० [सं०] . ज्ञानावरण'। ४ त्रिकोणमिति मे केंद्र पर के कोण के विचार से ऊपर बतलाई झानासन-सा पुं० [सं०] रुद्रयामल के अनुसार योग का एक मासन । हुई रेखा (फ ग) और त्रिज्या ( क ) की निष्पत्ति । ५ विशेष—इससे योगाभ्यास में शीघ्र सिद्धि होती है। इसमे दाहिनी पृथ्वी । ६ मामा । ७ किसी वृत्त का व्यास । ८ सर्वोच्च जांघ पर बाएं पैर के तलवे को रखना पड़ता है। इससे पैर की शक्ति (को०)। १ अत्यधिक मांग (को०)। १०. एक प्रकार नसें ढीली हो जाती है। की छठी । शम्या (को०)।१०. सेना का पुष्ठ भाग (को०)। ज्ञानी-वि० [सं० ज्ञानिन्] १ जिसे ज्ञान हो। ज्ञानवान् । जानकार। ज्याग-सबा पुं० [हिं०] दे० 'याग' ! 70-जेहा केहा पयाग २ पात्मज्ञानी । ब्रह्मज्ञानी। । वर राखोड़ा हुवै। वाकी ०, मा. ३, पृ० १४ । ज्ञानेंद्रिय- श्री• [सं० ज्ञानेन्द्रिय ] दे इंद्रियां जिनसे जीवों को ज्याघात--पुथा पुं० [सं०] धनुष की डोरी के स्पर्श या रगड़ से होने विषयो का बोष या ज्ञान होता है। ज्ञानेंद्रियो पांच है,-दर्शनें वाला उपलियो पर का निशान या चिह्न [को०] । द्रिय, श्रवणेंद्रिय, घ्राणेंद्रिय, रसना मौर स्पर्श द्रिय। यौ०-ज्याघातवारण - धनुर्घरो द्वारा पहना जानेवाला मालिमाण । विशेष-इन इद्रियों के गोलक या माधार क्रमश मांख, कान, जीभ, ज्याघोष-सहा पुं० [सं०] धनुष की टकार (को०] ।