पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/१६९

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९८५ ज्वरो विशेष-सुश्रुत, चरक मादि ग्रंथों मे ज्वर सब रोगो का राषा और बाणासुर में धोर सग्राम प्रा था । उसी अवसर पर नाणासुर मा प्रकार का माना गया है-यात पित्तज, कफज, वात- की सहायता के लिये शिव ने ज्वर उत्पन्न किया। नायर पित्तज, वातकफज, पित्तकफज, सानिपातिक और श्रागतुत्र । ने बलराम प्रादि को गिरा दिया और कृष्ण भर में प्रवेश घागतुज ज्वर वह है जो चोट लगने, विप खाने श्रादि के किया तब कृष्ण ने भीक वैष्णव ज्वर उत्पन्न किया जिसन कारण हो जाता है । इन सब ज्वरों के लक्षण मोर माचार माहवर ज्वर को निकालकर बाहर किया। माहेश्वर ज्वर के भिन्न भिन्न हैं । ज्वर से उठे हुए, कृपा या मिथ्या पाहार विहार बहुत प्रार्थना करने पर कृष्ण ने वैष्णव पर समेट करनेवाले मनुष्य का शेप या रहा सहा दोष जब वायु के द्वारा लिया भौर माहेश्वर ज्वर को हो पृथ्वी पर रहने दिया । वृद्धि को प्राप्त होकर भामाशय, हृदय, कठ, सिर और सबि इन दूसरी ल्या यह कि दक्ष प्रजापति क अपमान से कुद होकर पांच कफ स्थानो का प्राथय लेता है तब उससे अंतरा, तिजरा महादेव जी न माने सर से ज्वर को उत्पन्न किया। मौर चौथिया मादि विषम ज्वर उत्पन्न होते हैं । प्रलेपफ वर क्रि० प्र०-याना ।-होना। से शरीरस्थ घातु सूख जाती है। जब कई एक दोप कफ स्थान का प्राथय लेते हैं तव विपर्यय नाम का विपम मुहा०-कर उतरना = ज्वर का जाता रहना। वुधार दुर पवर उत्पन्न होता है। विपर्यय ज्वर वह है जो एक दिन होना। (किसो को) ज्दर चढ़ना = पर थाना । ज्वर न पाकर दो दिन बरावर पाये। इसी प्रकार भागतुफ का प्रकोप होना। घर के भी कारणो के अनुसार कई भेद किए गए हैं। २ मानसिक क्लेश । दु ख । शोक (को०)। बैसे, कामचर, क्रोषज्वर, भयचर इत्यादि । घर अपने ज्वररुटच-सा [म. (जर कुटुम्ब )] ज्वर के साथ होनेवाले भारभ दिन से सात दिनो तक तरुण, १४ दिनो तक मध्यम उपद्रव, जैसे, प्यास, श्वास, प्रधि, हिचकी इत्यादि। २१ दिनों तक प्राचीन और २१ दिनों में उपरात जीएंज्वर ज्वरन-सा पुं० [ न०] १ गुइच । २ बयुमा । कहलाता है। जिस ज्वर का वेग प्रत्यत अधिक हो, जिससे ज्वरचिकित्सा-सशस्त्री० [सं०] ज्वर का उपचार या इलाज [को०)। शुगर की काति विगड जाय, शरीर शिथिल हो जाय, नाही जल्दी न मिले उसे कालज्वर कहते हैं । वैद्यक में गुडच, ज्वरप्रतीकार-सया पुं० [0] ज्वर का उपचार [को॰] । चिरायता, पिप्पन्नी, नीम मादिकट वस्तएँवर को दूर करने ज्वरराज-झापुं० [सं.] ज्वर की एक प्रोपप जो पारे, माक्षिक. के लिये दी जाती हैं। मैनसिल, हरताल, गपक तथा भिलावे के योग से बनती है। की ज्वरहंत्री-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० ज्वरहन्धी ] मजीठ । पाश्चात्य मत के अनुसार मनुष्य के शरीर में स्वाभाविक गरमी पर ८ भार ६९ के बीच होती है। शरीर में गरमी उत्पन्न बरहर'-वि० [ ] ज्वर को दूर करनेवाला कोना हात रहन परि निकलते रहने का ऐसा हिसाव है कि इस नामा ज्वरहर-सहा पुं० ज्वर का चिकित्सक को। की उष्णता शरीर में बराबर बनी रहती हैं । ज्वर की भवत्या स्वराकश-सधा पुं० [सं० ज्वगडूश] १. ज्वर को एक घपध की में शरीर में इतनी गरमी उत्पन्न होती है जितनी निको नहीं पारे, गधक, प्रत्येक विष मोर धतूरे के पोजों के योग से पाती। यदि गरमी वहत तेजी से बढ़ने लगती है तो रक्त त्वचा बनती है । २ कुश की तरह की एक सुगधित घास। से हटने लगता है जिसके कारण जादा लगता है और शरीर विशेप-यह उत्तरी भारत मे कुमायू' गढवाल से लेकर पेशावर में कंपकंपी होती है । ज्वर में पद्यपि स्वस्थ दशा की अपेक्षा तक होती है। इसकी जड़ में से नौदू को सी सुगध आती। गरमी मधिक उत्पन्न होती है पर उतनी ही गरमी यदि यह घास चारे के काम की उतनी नहीं होती। इसकी जड स्वस्थ घरीर मे उत्पन्न हो तो वह विना किसी प्रकार का मोर दृठलो से एक प्रकार फा सुगति तेल निकाला जाता है मधिक ताप उत्पन्न किए उसे निकाल सकता है। अस्वस्थ जो शरबत यादि मे डाला जाता है । शरीर में गरमी निकालने की शक्ति उतनी नहीं रह पाती, ज्वरागी--पचा बी० [सं० ज्वरानी] भद्रदती नाम का पौधा। क्योंकि शरीर की घातों का जो क्षय होता है वह पूर्ति की ज्वर अपेक्षा अधिक होता है । ज्वर मे शरीर क्षीण होने लगता है, ज्वरातक-सहा पुं० [सं० ज्वरान्तफ] १ चिरायता। २ ममलतास । पेशाव मधिक माता है, नाडी और श्वास जल्दी जल्दी चलने जवरा--सहा पुं० [सं०] मृत्यु । मौत । उ०--लिये सब प्राधिन लगता है, प्राय कोष्ठबद्ध भी हो जाता है, प्यास प्रधिक व्याधिन जरा जब आवे ज्वरा की सहेली।-फेशव (शब्द०)। लगती है, भूख कम हो जाती है, सिर में दद तथा घगो में ज्वरा-सा धी० [सं०] ज्वर। विलक्षण पीरा होती है। विषले कीटाणुपा र शरीर में प्रदेश पद्ध, भगो की सूजन,धुप सादि के ताप तथा कभी कभी स्वरापह-वि० स० ] ज्वर को दूर करनेवाला। नाडया या स्नायुमो की अव्यवस्था से भी ज्वर उत्पन्न प्वरापहा-या खी० [सं०] वेलपत्री। होता है। ज्वरात-समा [सं०] ज्वरपीडित । पषम हरिवश मे एक कथा लिखी है। जब कृष्ण के ज्वारत-वि० [स० ] ज्वरयुक्त। जिते ज्वर पवार, पात्र पनिरुद्ध वाणासुर के यहाँ वदो हो गए दान करए और ज्वरी-वि० [सं० ज्वरिन्] [वि॰स्त्री० ज्वरिपो] जिसे ज्वर हो। ज्वर के.सरप मे हरिवश म