पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/१७७

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भेखर १८५ उ.--कह गिरिधर कविराय मातु भलस वहि ठाहीं।- झगडा-संज्ञा पुं० [ देशी झगर या हि झकझक से अनु.] दो गिरधर (शब्द०)। मनुष्यों का परस्पर मावेशपूर्ण विवाद । लड़ाई टा। बछेड़ा माखर -संशा पुं० [हिं. मक्कड] कोरा। उ.-घर भंवर कलह । हुज्जत तकरार। बीच वेलडी, तह लाल सुगमा वूल। भवधर इक नौ प्रायो, क्रि०प्र०—करना ।-उठाना ।-समेटना ।-शलना - नानक नहीं कवूल!-सतवारपी०, पृ०७० । फंसाना । तोरना।-सा करना । मचाना।-लगाना। भख' सशाश्री. [हिं० झीखना] झीखने का भाव या क्रिया। यो०- झगम बखेगा। भगा झमेला। मुहा०-- मारना=(१) व्यर्थ समय नए करना। वक्त मुहा०-झगड़ा खड़ा होना % झगडा पैदा होना । झगडासरीदना खराव कमना । जैसे,—पाप सवेरे से यहां बैठे हुए मम मार सकारण कोई ऐसी बात कह देना जिससे मनायास झगडा रहे हैं । (२) मानी मिट्टी खराव करना । (३) विवश खडा हो जाय । उ.---शेख बी जहाँ बैठते हैं झगड़ा बहर होकर बुरी तरह झीखना । लाचार होकर खूब कुढ़ना । जैसे, खरीदते हैं।—फिसाना०, भा०१, पृ. १०। झगडा मोस (क) तुम्हें झख मारकर यह काम करना होगा । (ख) मख लेना-दे० 'माग खरीदना'। मारो पौर वही जामो। उ०-नीर पियावत का फिरे घर घर झगड़ार-वि० [हिं० झगड़ा+माल (प्रत्य॰)] जड़ाई करनेवाला। सायर वारि। तृपावंत जो होगा पीवैगा झ मारि।- जो बात बात में झगड़ा करता हो। कबीर सा० सं०, भा० १, पृ.१५॥ भगठील-सबा बी० [हिं० झगडा] अपने नेग के लिये झगरा मख -सा ० [सं० झयामरस्य । मछली। उ०-माखन करनेवाली स्त्रा। मांसू उमडि परत कुचन पर मान । जनु गिरीसके सौस पर मार-सा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया। उ०-तती लाल ढारत भख मुकवान !-पद्माकर पं०, पृ० १७०। कर करे सारस मगर तोते तौठर तुरमती बटेर गहियत है।- यौ०-खकेतु । भनिकेत । भवराज । झक्षलग्न । रघुनाप (शब्द०)। मगरना-कि० म. [वशी झगड, हिं• झगड़ा] ० "झगाना'। मखकेतु-सा पुं० [सं० भषकेतु!३० "भाषकेतु' । उ-माखों को नचा उ.-बसुमति मम मभिसाख करै। कब मेरी मंचरा गहि नचाकर भखकेतु ध्वजा फहरात ।-बी० शा० महा०, १८८। मोहन जोइ सोइ कहि मोसो झगरें।-सूर०,१.७६ । मखना+-कि.भ.प्रा. झपखण] दे० "झीखना। 30--(क) मगरा -स ० [देशी झप] दे. "झमड़ा। बावा नद मखत केहि कारण यह कहि मया मोह अरुझाय। मगराऊg -वि० [हिं० झगड़ालू] ३० 'झगगलू' उ०-याहि कहा सूरदास प्रभु मातु पिता को तुरतहि दुख अरघो बिसराय । मैया मुह लावति, गति कि एक लेगरि झपराक।-तुलसी —सूर (शब्द॰) । (ख) पुनि घोह घरी हरि की मुजान ते ०.१०४३४। घटिवे को बह माति झखीरी।-केशव (शब्द॰) । (ग) कवि मारिनिहु-सका सी० [हिं० झगड़ी] दे० 'झगड़ी' 1 30-(क) हरिजन मेरे उर वनमाल तेरे विन गुन माल रेन सेख देखि बहुत दिनन को पासा लागी झगरिनि झगरी कीनो।-सूर०, झखियो । हरिजन (धन्द०)। १११५। (ख) झपरिनि । ही बहुत सिझाई। कचनहार मखनिकेव@--पा० [सं० झषनिकेत दे० 'झवनिकेत। दिए नहि मानति तुही मनोली दाई।--सूर०, १०११३ । मखराज--सया पुं० [सं० झपराज] मकर। नक। पराज। मगरी -संक खी० [हिं० झगड़ी] दे॰ 'झगड़ी'। .-ययोमति उ.--भखराज प्रस्यो गजराज कृपा ततकाल बिलब कियो न लटकति पाय परे। तेरो भलो मनाही झगरी हूँ मति मनहि वहाँ ।-तुलसी प्र०, पृ० १६९ 1 रे।—सूर (शब्द०)। भगरो-सभा पुं० [हिं०] दे० 'झगड़ा'। उ०-(क) मोर पो वा मखलगन--सधा पुं० [सं० झपलग्न] दे० 'झपलग्न' । समय प्रमुन को मुरारीवास वह वस्तू न देते तब भी भी झखिया-सथा श्री [हिं० मत+हया (प्रत्य॰)] दे० 'झखी'। बालकृष्ण जी प्राकृतिक बालक की नाई झगरी मुरारी- फखी --मक्षा सो [सं० झष] मौन । मछली। मत्स्य । उ0- दास सों करते।-दो सौ बावन०, भा. १, पृ.१००। (क) पावत बन ते साँझ देखो मैं गायन मांझ, काहू को (ख) तहें तुम सुनहरा धन तुम्हरी । एक मोक्षता पर सब वोडारी एक शीष मोर पखियो । मतसी कुसुम जैसे चंचल झगरी-नद.ग्र., यू० २७३। धीरघ नैन मानौ रस भरी जो लरत जुगल झखियाँ -सूर मगला - पुं० [हिं० गा+ला (प्रत्य॰)] दे० 'झगा। (शब.)। (ख) गोकुल माह में मान कर ते भई तिय । मगा-सा दे [देश॰] १ छोटे बच्चों के पहनने का कृश्य ढोला फूरता। बारि बिना मखिया है।-(शब्द०)। उ.-नद उदै सुनि मायौं हो वृषभानु को जगा। देवे को झगडना-कि० १० (देशी झगड (= झगठा, मलह) हि० ना बढ़ी महर, देत ना सावै गहर लाल की बधाई पाऊँ लाल को (प्रत्य०) पा झकझक से अनु०] दो मादमियों का श्रावेश झगा।--सुर० १०३६। २ वल। शरीर पर पहनने का में भाकर परस्पर विवाद करना। झगड़ा करना। हुज्जत कपड़ा। उ०—(क) झगा पगा पा पाग पिछोरी ढाढिन को तकरार करना । लड़ना। पहिरायो। हरि दरियाई कंठ लगाई पद्रा सात उठायो। संयो०कि-जाना।—पड़ना। -सूर (सन्द०)। (ख) सीस पणा न झगा तन मे प्रभु जाने