पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/१९६

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झार" १९४२ मास स्थान में हवा के चलने तथा गूज मादि के कारण युनाई पड़ता विधारि केहि बालक घोटक गह्यो। बसें इहाँ ऋषि झारि हैपौर जिससे कुछ भय सा होता है। जैसे, इतना वा सूदा क्षत्रिन कर न निवास इत्त ।-(शन्द०)। घर झार्य झार्य करता है। मारि-सका सी० [हिं० भयो, या से० धार (धारा)] पनवरत मार@ -वि० [.सवं, प्रा. सारो, हिं० सारा] 1. एकमात्र । वर्षा की झड़ी। प्रखर यूदों की धारा। उ०-मेपनि बार निपठ। केवल । उ०-दीयो दषि यान को सुकैसे वाहि भावत कही पुकारि। सात दिन भरि परसिज पर गई कुन पाधि मन भायो झार झगरी गोपास को।-पदमावर झारि। -सूर०, १०८५२।। (शब्द०)। २.संपूर्ण। कुल । सब। समस्त । उ०-के नख मारी-सहा स्त्री० [हिं. झरना] लुटिया की तरह एक प्रकार का सिखौं पदमाकर जाहिरै झार सिंगार कियो है। पद्मा- लॅनोतरा पात्र जिसमें जल गिराने के लिये एक मोर एक टोटी कर मं.पु.१९८1 ३. एमूह । झुड। लगी रहती है। इस टोटी में से पार कर जल निकषता है। इसका व्यवहार देवतामों पर जल चढ़ाने मयवा हाय पैर यौ०-सारभार । झाराभार । पादि घुलाने मेोता है । उ०-(क) मासन दे पौकी भागे झार-संभ बी० [सं० झाला (3 ताप.)] १. दाह । डाह । जलन । धरि। जमुनाजल राख्यो झारी भरि-सुर (रान्द०)। या। उ-मोसौं कही बात बावा यह बहुत करत तुम सोच (ख) मापुन भारी मागि विप्र के परन पखारे। इती दूर विचार। कहा कहीं तुम सौ मैं प्यारे कंस करत तुमसों कछु श्रम कियो राज जि भए दुखारे।-सुर (थन्द.) मार।-सुर०, १.५३०। २. ज्वाखा। खपठ । पाच । झारी:--सना श्री. [सं० झारि] वह पानी जिसमे प्रमपूर, जीरा, 10-(क) जनहुँ छाँह में धूप दिखाई। तैसे मार लाग जो नमक मादि पुला हुमा हो। इसका व्यवहार पश्चिम में पाई।-जामसी (शब्द॰) । (ख) नाम से चिलात बिलखात अधिक होता है। प्रकुलात पति तात तात तौसियत झौंसियत झारहीं।--तुलसी मारीख-समा सी० [हिं. झाड़ी] दे॰ 'झाडी'। उ०-फूल झरें पं०, पृ० १७४। (ग) गरज किषक माधास तठत मनु दामिनि सखी फुलवारी। दिस्टि परी तकठी 'सब भारी'। —जायसी पावक झार। -सूर (शब्द०)। ३. झाल । घरपरापन । प्र०, पृ० २५४ ॥ उ०-छांछ छबीली घरी घुगारी। झरई उठत भार की झारी-वि० [हिं०] ३० भार। म्यारी । --सूर (शब्द०)। ४.वर्षा की दे। मड़ी। मारू-सा पुं० [हिं० माइ] ३० 'झार। भार--सा पुं० [हिं० झडना] झरना । पौना । मारनेवाला-वि० [सं० पशद् प्रा. झा, हि झारा+वाला (प्रत्य॰)] भार-सका पुं० [सं० झाट, देशी झार (= सता गहन) १. वक्ष । पटा खेलनेवाला । पठा । बनेठी या लकड़ी चलानेवाला । पेटझार । २. एक पेड़ का नाम । झाझर-सपा पुं० [सं०] ढोल या हड क बाजा बजानेवाला (कोर। झारखंड-संपुं० [हिं० झाड़+खर] १ एक पहाड़ जो वैधनाय झाल–स पुं० [सं० मल्लक] झोझ। कासे का बना हुमा ताल होता हुमा जगन्नाथ पुरी तक पला पया है। देने का वाद्य । १०-सहस गुजार में परमली झाल है, विशेष-मुसलमानों ने अपने इतिहास प्रयों में छत्तीसगढ़ भौर झिलमिली उलटि के पौन भरना ।-पखद०, पृ. ३.1 पोग्वाने के उत्तरी भाग को झारखंड के नाम से लिखा है। माल- . [देश॰] 1 रह? का बड़ा खांधा। २. झालने को २ दे० झाड़खंड। क्रिया या भाव। मारन-क्रि० स० [हिं० झाड़ना] दे॰ 'झाड़न' । माल'-सा स्त्री० [सं० झाला] १ परपराहछ । तीतापन । मारना' -क्रि० स० [सं० झर] १ बाल साफ करने के लिये कधी तीक्ष्णता । जैसे, राई की झाल, मिरचे की झाल । २ तरग। करना। २.छांटना। पलग करना। जुदा करना। ३. मौज । बहर । ३. कामेच्छा । चुल । प्रसंग करने की कामना। माल --स० [हिं० भड़] दो तीन दिन की लगातार पानी की झारनाल-क्रि० स० [हिं० झलना] दे॰ 'झलना' । उ.--सुरति पंदर पे सनमुख झारे। कबीर १०, भा०३, १९ १७ । झड़ी जो प्राय जाड़े में होती है। उ०-जिन जिन सवल ना किया मसपुर पाटन पाय । माल परे दिन माथए सबल किया भारका -पचा बी० [हिं०] दे॰ 'झा । न जाय !- कबीर (शब्द॰) । झारा'-संश पुं० [हिं० मारना] १. पतली छवी हुई भाय। २. क्रि. प्र.-करना। वहसूप जिससे मा को फटककर सरसों इत्यादि से पृथक् द या भान-वि० [हिं० झार] दे० 'भार। - करते हैं। करवा ।।३ साठी तेजी से चलाने का हुनर। माल-- श्री. [सं० ज्वाले, प्रा. झाल] १ पाँच । ज्वाला । मारा-सा बी० [सं० ज्वाला, हि. माल ] मार । ज्वाला । उ.--पग्नि झाल में सांकडे पैसता बैठते कठते श्री राम रक्षा १०-मौर वगष का कहौं पारा। सुनै सो जरे कठिन प्रसि करें।-रामानंद०, ५०६।१२. ग्रीष्म ऋतु। 10-माये झारा-पावत, पृ०२४१ । भेल भाल कुसुम सब यूछ। वारि विहन सर केमो वधिपूछ। मारि' -० [हिं० भार] दे॰ 'झार"। उ०-महह सुमंत -विद्यापति, पृ. ३१५॥