पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/२१०

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१८५६ मूलाना मलना-वि० [वि.खो भूबनो] भूलनेवाला। जो झूलता हो। जाने पौर भाने को पेंग कहते हैं । झूले पर बैठकर पेंग देने के से झूलना पुल लिये या तो जमीन पर पैर को तिरछा करके भाघात करते हैं या उसके एक सिरे पर खड़े होकर झोंके से नीचे की पोर मलना-सा पुं० १. एक छंद जिसके प्रत्येक चरण मे ७,७, ७ मौर ५ के विराम से २६ मात्राएँ और अंत में गुरु लघु होते मुकते हैं। हैं। जैसे-हरि राम विभु पावन परम, गोकुल बसत भनभान ) कि०प्र०-झूलना।-डोसना ।-पड़ना। २. इसी छद का दूसरा भेद जिसके प्रत्येक चरण मे १०, १० २. बड़े बड़े रस्से, जजीरों पा तारो आदि का बना हुमा पूल १०मौर ७ विराम से ३७ मात्राएँ और अंत ।यगरप जिसके दोनों सिरे नदी या नाले मादि के दोनों किनारों पर होता है। जैसे,-जैति हिम बालिका भसुर कुल घालिका किसी बड़े खंभे, चट्टान या कुर्ज मादि में बंधे होते हैं पौर कालिका मालिका सुरस हेतु । ३. हिंडोला। झला। (क्व०)। जिसके बीच का भाग अधर में लटकता और झूलता रहता उ०-मंगवा की गली तले माली झूलना डला दे।-गीत है। झूलता हुया पुल । जैसे, लछमन झूला। (चन्द०)। विशेष-प्राचीन काल में भारतवर्ष मे पहाड़ी नदियों मादि पर मलनि --संश स्त्री० [हिं० भूलना] मलने का भाव या स्थिति। इसी प्रकार के पुल होते थे। भाजकल भी उत्तरी भारत ३०-हत यह ललित लतन की फूलनि । फूलि फूलि जमुना तथा दक्षिणी अमेरिका की छोटी छोटी पहाड़ी नदियो भोर पल मुलनि !-नंद००, पृ० ३१६। बड़ी बड़ी खाइयों पर कहीं कही जंगली जातियों के बनाए हुए इस प्रकार के पुरानी चाल के पूल पाए जाते हैं। मूलनी बगली-संश स्त्री० [हिं० झूलना+बगली 1 मुगदर की पुराची एक प्रकार की कसरत जो बगली की तरह की होती है। पाल के पुल दो तरह के होते हैं- (१) एक बहुत छोटे पोर मजबूत रस्से के दोनों सिरे नदो या विशेष-बगली की अपेक्षा इसमें यह विशेषता है कि पीठ पर से खाई मादि के दोनों किनारो पर की दो बड़ो चट्टानों मादि बगल में मुगदर छोड़ते समय पजे को इस प्रकार उलटना मे बांध दिए जाते हैं और उनमें बहत बड़ा वोरा या चोखटा पड़ता है कि मुगदर बराबर झूलता हमा जाता है। इससे मादि लटका दिया जाता है। ऊपरवाले रस्से को पकड़कर फलाई में बहुत जोर माता है। यात्री उसे कभी कभी स्वयं सरकाता पलता है। (२) मोटो मूलनी बैठक-सवा स्त्री॰ [हिं० झूलना+बैठक (= कसरत)] एक मोटी मजदूत रस्यिों का जाल बुनकर अथवा छोटे छोटे डरे प्रकार की कसरत । बांधकर नदी की चौड़ाई के बराबर लंदी पौर डेढ़ हाथ विशेष-बैठक की इस कसरत में बैठक करके एक पैर को हाथी पौड़ी एक पटरी सी बना लेते हैं और उसे रस्सों मे लटकाकर के सू की तरह झुलाकर और सब उसे समेटकर बैठना पौर दोनो ओर रस्सियों से इस प्रकार चाँध देते हैं कि नदी फिर उठकर दूसरे पैर को उसी प्रकार मुलाना पड़ता है। के ऊपर उन्ही रस्सो मौर रस्सियो को तटकती हुई इसमें शरीर को तौलने की विशेष साधना होती है। एक गली सी बन जाती है। इसी में से होकर भादमी पलते मूलर -समय [हि झूल] झुड। जमघट । उ०-चालूंबाचा हैं। इसके दोवों सिरे भी नदी के दोनो किनारे पर देसणउ जहाँ पाणी सेवार । ना पाणिहारी मूलरउ ना चट्टानों से बंधे होते हैं। भाजफन यूरोप, अमेरिका प्रादि की कुवा लेकार।-ढोला०, दु० ६६४।। बड़ी बड़ी नदियो पर मी मोटे मोटे तारों मोर जंजीरो से मूलरि-संश बी० [हिं० मूलना ] भूलता हुमा छोटा गुच्छा या इसी प्रकार के बहुत बड़े, बढ़िया भौर मजबूत पुल बनाए झुमका । 30--बर वितान बहु तने तनावन। मनि मालरि जाते हैं। मूलरि लटकावन !--गोपाल (शब्द॰) । ३. वह बिस्तर जिसके दोनों सिरे रस्सियो म बाधकर दोनों मला-संधापु० [सं० दोला] १. पेड़ को डाल, छत या पौर किसी और दो केची खूटियो या खभो धादि में घोष दिए ऊंचे स्थान में बांधकर लटकाई हुई दोहरी या चौहरी रस्सियों गए हों। जंजीर भादि से बंधी पटरी जिसपर बैठकर मूलते हैं। विशेष-इस देश में साधारणत. देहाती बोग इस प्रकार टाट हिंडोला। के बिस्तर पेड़ों में बाष देते हैं और उनपर सोते हैं। पहाजों विशेष-झूला कई प्रकार का होता है। इस प्रांत में लोग मे खलासी लोग भी इस प्रकार के कनवास के बिस्तरो का साधारणतः वर्षा ऋतु या पेड़ो को डालों में मुलते हुए रस्से व्यवहार करते हैं। बांधकर उसने निघले भाग में तख्ता या पटरी पादि रखकर ३. पशुप्रो को पाठ पर अलने को झूल । ५. देहाती स्त्रियों के उसपर झूलते हैं। दक्षिण भारत में झूले का रवाज बहुत पहनने का ढीला ढाला कुरता। ६. झोका। झटका ।- है। वहां प्रायः सभी घरो में यतो मे तार या रस्सी या (क्व०) . तरबूज 1. लियो का एक प्रकार का जजीर लटका दी जाती है और बड़े तस्ते या चौकी के पारो सामूषण । २.३० "झुलना'। कोने से उन रस्सियों को वाषफर जंजीरों को जड़ देते है। मूलाना -क्रि-स.हि. मुलाना] दे० 'मुलाना'। उ०-तामे झूले का निचला भाग जमीन से कुछ ऊंचा होना चाहिए जिसमें श्री ठाकुर जी को डोल झूलाए।-दो सौ बावन०, भा० १, वह सरलता से बराबर झूल सके। सूते के मागे पौर पीछे पृ०२३.।